Friday, March 14, 2014



.......मुझे चुनमुन कहने वाली
चुनमुन तुम्हे पता है......
क़ब्र में मुर्दे इंतज़ार करते हैं
कोई अपना आए उनके घर ..बेक़रार रहते हैं
छोटी सी थी मैं..मेरी माँ..मेरा "बचपन" मर गया था
ज़िंदगी के हिसार से छूट कर....रूहों के घर गया था
और पापा.... उनकी उंगलियों की नर्माहट 
दम तोड़ गई थी...
"बेआसरा"...."यतीम" जैसे बेहिस लफ्ज़ 
मुझसे जोड़ गई थी...
मैं चीखती रही, छटपटाती रही
रोती रही....... बिलबिलती रही
माँ बच्चों को तड़प्ता कहाँ छोड़ सकती है
भला पीठ अपनी क़ब्र से कैसे जोड़ सकती है?
मैं जाती हूँ अक्सर मुर्दों के जहान में
उसी क़ब्रिस्तान में
औरतों का जाना माना है वहाँ...
मेरा दिल....... मानता है कहाँ...
जाती हूँ...रात में...
उनका ज़ब्त आज़माने
.........लेटकर सिरहाने
उनसे खूब बातें करती हूँ
कहती हूँ...
मौत से नहीं अपनी तन्हाइयों से डरती हूँ
तू ना आ सके तो .............मुझको बुलाले माँ
मैं मुद्दत से नहीं सोई... अपने पास सुलाले माँ
दीवानावर क़ब्र की मिट्टी को ............चूमती हूँ
उसको छू रही हूँ.........इस ख़याल से झूमती हूँ
रात क़ब्र पर जीने को.... सारा दिन मरती हूँ
एक बार तुझे पा जाऊं सारी कोशिश करती हूँ
.....
.......मुझे चुनमुन कहने वाली
अपनी माँ से जा मिली है
इस दर्द पर आँखे मेरी ना सूख सकी ना गीली हैं
वो कहती थी मुर्दे सुनते हैं
आज मैं बातें करता हूँ....
क्या वो क़ब्र से सुनती है......
क्या वो क़ब्र से सुनती है......

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