Wednesday, April 29, 2020

~~रूह ओ जिस्म ~~



~~रूह ओ जिस्म ~~


जिस्मों को ठोकर लगी 
रविश ए रूहानी पर
रूह ने संभाल लिया
 जूस्तजू ए जवानी पर
मुख़्तसर ये हयात थी
रूह से रूह की बात थी
नही जवान धड़कनों की तर्ज़
इश्क़ था कोई ला-इलाज मर्ज़ 
रूह ओ इश्क़ की लफानी पर
आरज़ुओं के क्या मानी पर
मेरी आरज़ू  जो थी रिस गई
तेरे पसलियों के दरमियाँ
तेरी हथेलियाँ 
तेरे बाज़ू थे 
एक शोर मे बेक़ाबू थे
मैं उंस ए मुश्क़ मे थी मुबतिला 
मेरी ख्वाहिशों का जो था काफिला 
एक नूर मे थी पिरो रही 
अश्क़ ए लहू से रो रही
तेरे तर्ज़ ए उलफत की बेयिमानी पर...
अपनी जूस्तजू की रवानी पर..
...


~~मुस्कुराएगी~~

उनका हाल भी पूछ लिया...
और अनकहा भी चख लिया..
पी कर खामोशियाँ 
दो घूँट भर क रख लिया,
की जब पराए शोर मे 
रात को चूमती ,
सहमी सी 
एक भोर मे,
कोई याद आएगा 
उलफत ए शिद्दत को 
थोड़ा सा आज़माएगा ,
वो घूँट खोल के
एक बूँद की नमी 
उम्मीद के काशकोल से 
प्यास भिगो जाएगी 
रात ठहरी है कब
ये भी तो गुज़र जाएगी ..,
फिर से सुबह हम दोनो की 
हालत ए दर्याफ़्त पर
दिल खोल क मुस्कुराएगी !

Dr Shaista Irshad

मदावा

मदावा के मायने पूछे थे उसने 
और फिर वो उर्दू की हर मौज को पुकार उठा 
यूँ जैसे हर लफ्ज़ को यूँ छू के देखा हो
जैसे कोई नाबीना अपने हाथो से 
किसी पत्थर पे तराशे मुजस्सम के नकूश पे 
रूह फूँकने की जद्दो जहद से लबरेज़ हो कर 
उसका हुस्न दोबाला कर दे...!
मायने नया पैरहन पहन लेते थे लब ओ लहजे को छू कर उसके 
की मैं उस पैरहन मे पिरोए रंगो 
की  तासीर को मसीहाई कह बैठी....,
और फिर वो सिर्फ़ कहने के हुनर से दो चार...
खुद मे इंतिहा हस्सास  "दो कान" भी रखता था ...
मैने लिखा था किसी नज़्म मे अपनी...
"दो कान की आरज़ू है मुझे..."
जब मैं बोलती वो कोरा काग़ज़ बन जाता ...
की मैं तौले जाने के ख़ौफ़ से लापरवाह...
जब अपना आप सामने रखती तो लगता 
आज मुद्दतो बाद गहरी साँस ली हो...
जैसे इसके पहले जीने जितनी साँस मयस्सर थी...
खुद को अयान कर...
खुद मे उतर के देखा है...
बेहद हसीन इत्तेफ़ाक़ था ..
खुद से मुलाक़ात का..
रूबरू होने का...
ऑर फिर बेसखता ये कहने का ...
मदावा के मायने पूछे थे उसने ..!!

Dr Shaista Irshad


Monday, April 27, 2020



~~दरीचा~~

तुम उस तवील गुफ्तगू के सहरा में 
उस दरीचे की तरह हो
जिससे बिन मौसम बरसात हो जाने  पर 
मिटटी के  भीगे बदन की खुशबु  आए ,
वह दरीचा जो सांस भर उम्मीद 
और जुमले भर लफ्ज़  देता है,
वह जुमला जो 
कानो का मुन्तज़िर 
अपने होने का अहसास यूँ पाता है
जैसे पसीना शिद्दत ए  गर्मी पी कर 
हर रोए से फूट कर  निकले ,
पेशानी पर जमा उस पारदर्शी बूँद सा
जिसमें झाँक कर देखा जा सकता है की 
कश्मकश की शिद्दत कितनी गहरी उतरी है ,
की ख्वाइश इस कैफियत का वज़न 
पलकों पर  उठा लेना चाहती है ,  हाँ
हाँ उस दरीचे से नज़रआती कैफियत का ।
मैंने अब तक नाम नहीं दिया है  दरीचे को , 
न ही किसी जज़्बे की गुलामी में तक़सीम किये  है 
उससे जुड़े जज़्बात को,
हाँ अभी जज़्बात अनछुए से है 
जैसे दरीचे के इस पार से उस  पार तक 
एक पाक फासला 
इसी फासले की नज़र वह अनकहा मरासिम 
हौले हौले सांस लेता है 
क्योंकि मैंने सुना है उस दरीचे को धड़कते हुए !

डॉ शाइस्ता इरशाद 


  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...