*अधूरापन*
कच्ची पक्की नींद की खुमारी में भी
तू भूलता नहीं...
हर करवट पे तकीए की तरह तुझे
बदन के इस ओट से
उस ओट तक सीने से लगा के रखती हूँ..
सोते मे तुम बड़े प्यारे लगते थे....
सिरहाने तुम्हारी साँसों की महक
भी आबाद रहा करती थी...
बेइख्त्यार तकिये पे उस खुश्बू को जगाया मैनें...
तेरी छुअन को भी खुद पे सजाया मैने
तुम्हारी सुबह मेरे भीगे बालों से बेदार होती थी
अब भीगे बालों से टपकता बूँद बूँद पानी
मेरे आँसुओं को धो रहा है....
अब लौट आओ
रोम रोम मुंतज़ीर है...
~औरत~
~कभी जो गौर से अपनी शक़्ल देखती हूँ तो अपनी अम्मा का चेहरा नज़र आता है... वक़्त बीत जाता है..मगर औरत की कहानी...बदलने की नहीं.. बचपन से अम्मा को रोते बिलखते देखा... वो चुप रहती थी..हर घलत सही के जवाब में खामोश...अब्बा जो भी कहते सब सही ..फिर भी उनका हाथ उठ जाता....और अब...मैं.. मैं नए ज़माने की हूँ ..सोचती थी कभी ना सहूंगी अम्मा के जैसे ... आख़िर..आख़िर अपने पैरों पर खड़ी हूँ..मगर क्या बदला है...अम्मा चुप रहके पिटती थी ..ओर मैं ज़बान दराज़ी कर के...! अपना चेहरा जो आईने में देखती हूँ तो लगता है यह मेरा नहीं अम्मा का चेहरा है आँसुओं से तर- बतर.. ज़ोर ज़ोर से रगड़ के अम्मा का चेहरा छुड़ाना चाहती हूँ..उनकी क़िस्मत मिटाना चाहती हूँ अपने चेहरे से..मगर, औरत का नसीब...क्यों कर बदलेगा ..मुहब्बत को तरसती क़ब्र तक पहुँच जाती है...औरत...~
~कभी जो गौर से अपनी शक़्ल देखती हूँ तो अपनी अम्मा का चेहरा नज़र आता है... वक़्त बीत जाता है..मगर औरत की कहानी...बदलने की नहीं.. बचपन से अम्मा को रोते बिलखते देखा... वो चुप रहती थी..हर घलत सही के जवाब में खामोश...अब्बा जो भी कहते सब सही ..फिर भी उनका हाथ उठ जाता....और अब...मैं.. मैं नए ज़माने की हूँ ..सोचती थी कभी ना सहूंगी अम्मा के जैसे ... आख़िर..आख़िर अपने पैरों पर खड़ी हूँ..मगर क्या बदला है...अम्मा चुप रहके पिटती थी ..ओर मैं ज़बान दराज़ी कर के...! अपना चेहरा जो आईने में देखती हूँ तो लगता है यह मेरा नहीं अम्मा का चेहरा है आँसुओं से तर- बतर.. ज़ोर ज़ोर से रगड़ के अम्मा का चेहरा छुड़ाना चाहती हूँ..उनकी क़िस्मत मिटाना चाहती हूँ अपने चेहरे से..मगर, औरत का नसीब...क्यों कर बदलेगा ..मुहब्बत को तरसती क़ब्र तक पहुँच जाती है...औरत...~
तेरी परछाई से उलझ पड़ी हूँ
तेरी हमनवाई का हक़ मेरा था ...मेरा है
तेरी हमनवाई का हक़ मेरा था ...मेरा है
एक वक़्त ऐसा था लड़कियों को आईना देखने की इजाज़त नही थी .. लेकिन लड़कियाँ खुद को ना निहारे
तो अल्हड़पन को कैसे पार करती... १ पैसे की सुर्खी खरीद लाती ओर चुपके से होंठों पर रगड़ के
मटके मे मुँह डाल देती... अंधेरे मटके के पानी में ढुंधलया सा अक्स जाने कैसी खुशी देता था...अपने कामिनी कमसिन से रंग में लबरेज़ खुद को हसीन मान के बेपनाह ख्वाब सजा लेती... खूबसूरत लगने का शौक़... सराहे जाने की आरज़ू जाने कितने सदियों से चली आ रही है...
तो अल्हड़पन को कैसे पार करती... १ पैसे की सुर्खी खरीद लाती ओर चुपके से होंठों पर रगड़ के
मटके मे मुँह डाल देती... अंधेरे मटके के पानी में ढुंधलया सा अक्स जाने कैसी खुशी देता था...अपने कामिनी कमसिन से रंग में लबरेज़ खुद को हसीन मान के बेपनाह ख्वाब सजा लेती... खूबसूरत लगने का शौक़... सराहे जाने की आरज़ू जाने कितने सदियों से चली आ रही है...