Thursday, May 14, 2020

बेनाम मरासिम

बेनाम मरासिम

वो मसनूई एक आवाज़ है
जो तमाम तहों में सिमट के भी
करे है मदावा मेरे हाल का
जैसे छुपा हुआ कोई चIरागर

मैं आँसुओं में अदा हुई 
कभी टीस बन कभी आह बन
कभी साँस थी कभी शोर था
नहीं खुद पर कोई ज़ोर था

काँपते लबों में जब
सिलवटों का क़याम था
मैं चुप रहूं या कुछ कहूँ
लहजा मेरा आम था
वो सिलवटों पे रख के लफ्ज़
उंगलियों मे पिरो के यूँ
मुझे हर्फ ब हर्फ और लफ्ज़ ब लफ्ज़ 
लिखा करे है ठहर के यूँ
जैसे उम्मीद जबीन ए चाँद पर

दरीचा है, दरवाज़ा भी, 
आह भी और गवाह भी
कभी सरIपा दर्द ए क़याम है
जो ठहर के भी है रवाँ रवाँ 
जैसे मसीहाई का पयाम है
ये कौन सा मक़ाम है
जब बिना उम्मीद ओ मरासिम के भी
तकिये पे फूल रख जाए है
दर्द में यूँ आए है ...

मुझे वाक़िफ़ करे है मुझसे यूँ
जैसे शनासाई एक उम्र की
मुझे मिला के मेरी शिनाख्त से 
मुझे मेरे पास सहेज कर
लौटा रहा है मुझको वो 
मेरे लफ्ज़ मुझको भेज कर
मैं कागज़ी मैं आरज़ी
 रिहा करके क़लम की नोक से
मैं हो गई हूँ मुस्तकिल..
हाँ तभी से हूँ मैं मुस्तकिल...

Masnooi: jani pahchani
marasim: rishta
jabeen :matha
madaava: ilaaj
Dr Shaista Irshad
shanasai: pahchan
aarzi: temporary
mustakil: permanent 

Sunday, May 10, 2020

~~मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ~~

~~मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ~~

मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ
जो सरापा फूल बन जाते 
तुम्हारी ज़ूलफें अगर छूते 
कानों के ज़रा ऊपर 
गुलाबी जिल्द पर उभरी 
हरी उस नस की धड़कन को
अपनी रग मे धड़कIते !


मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ
जो सरापा फूल बन जाते 
तेरी मासूम लट थामे
गरदन तक उतर आते 
उलझे ख़म को सुलझाते 
सुलह आपस मे करवाते 
और हर एक बोसे मे
बहार ओ गुल खिला जाते!


मैं खुहबु का क़ाफ़िला हूँ
जो सरापा फूल बन जाते 
तुम्हारी उंगलियों में 
जो शर्मगी लम्स ठहरा है 
उस लम्स की सांसो मे 
अपनी साँसे पिरो जाते 
वो साँसे फिर खनक उठती 
सिहरती सुर्ख़ चूड़ियों मे 
उंगली दाँत की हमराह 
फिर शर्मा का बिछ जाती 
उनसे उभरी शोखी में 
हम ही हम नज़र आते !


मैं खुश्बू का काफिला हूँ
जो सरापा फूल बन जाते 
तेरे पाँव की एड़ी से 
लम्स बन कर, सदा बन कर
दुआओं सा बिखर जाते 
नक्श-ए- पा पर फिर तेरे 
सदजो की तरह बिछ कर
आरज़ुओं को मनवाते 
मैं खुश्बू का काफिला हूँ
जो सरIपा फूल बन जाते!!

Dr Shaista Irshad 
नक्श-ए- पा: footprints
शर्मगी: shy 
सिहरती: shivering


  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...