बेनाम मरासिम
वो मसनूई एक आवाज़ है
जो तमाम तहों में सिमट के भी
करे है मदावा मेरे हाल का
जैसे छुपा हुआ कोई चIरागर
मैं आँसुओं में अदा हुई
कभी टीस बन कभी आह बन
कभी साँस थी कभी शोर था
नहीं खुद पर कोई ज़ोर था
काँपते लबों में जब
सिलवटों का क़याम था
मैं चुप रहूं या कुछ कहूँ
लहजा मेरा आम था
वो सिलवटों पे रख के लफ्ज़
उंगलियों मे पिरो के यूँ
मुझे हर्फ ब हर्फ और लफ्ज़ ब लफ्ज़
लिखा करे है ठहर के यूँ
जैसे उम्मीद जबीन ए चाँद पर
दरीचा है, दरवाज़ा भी,
आह भी और गवाह भी
कभी सरIपा दर्द ए क़याम है
जो ठहर के भी है रवाँ रवाँ
जैसे मसीहाई का पयाम है
ये कौन सा मक़ाम है
जब बिना उम्मीद ओ मरासिम के भी
तकिये पे फूल रख जाए है
दर्द में यूँ आए है ...
मुझे वाक़िफ़ करे है मुझसे यूँ
जैसे शनासाई एक उम्र की
मुझे मिला के मेरी शिनाख्त से
मुझे मेरे पास सहेज कर
लौटा रहा है मुझको वो
मेरे लफ्ज़ मुझको भेज कर
मैं कागज़ी मैं आरज़ी
रिहा करके क़लम की नोक से
मैं हो गई हूँ मुस्तकिल..
हाँ तभी से हूँ मैं मुस्तकिल...
Masnooi: jani pahchani
marasim: rishta
jabeen :matha
madaava: ilaaj
Dr Shaista Irshad
shanasai: pahchan
aarzi: temporary
mustakil: permanent
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mustakil: permanent