~~अगर वो देख लेता ...~~
वो दम बखुद मोबाइल और वाइ फ़ाई के सिग्नल्स जिस शिद्दत से देखता है,
काश उसने यूँ ठहर कर मेरे खामोश लबों की जानिब देखा होता ...
तो पत्थर का बुत भी खुदा से ज़बान माँग बैठता की उसकी नज़र मायूस ना लौटे...
उसकी बेताब नज़र क्या कर सकती थी उसको अंदाज़ा ना था....
अगर वो ठहर के देख लेता तो ...
पोर पोर से शर्म ओ हया के उन्स मे लिपटा पसीना यूँ छलक पड़ता मानो उसने पलकों से भंवर उकेर दिए हो बदन की जिल्द पर....
उसकी नज़रो के लम्स के मुंतज़ीर के मारे लब मेरे ..थरथरा उठते ,गदरा जाते ...इक़रार ए उल्फ़त के शौक़ मे....
बाज़ू नदी हो जाते , जिस्म को छुपा लेते ...
अगर वो देख लेता ...
सिर सजदा मे होता,
आह दुआ बन सांसो से रिहा हो जाती....
और घुरूर आँसुओं सा तुम्हारे क़दमो तले यूँ जमा होता जैसे आँखे बरस के पानी हो चुकी हो और सींच रही हो तुम्हारी तवील उम्र की ख्वाइश को ....
काश तुमने यूँ ही ठहर के देखा होता ....
तुम्हारी इन ठहरी हुई पलकों पे मेरी दुआओं के बोसे होते ,
पलकों के भारीपन को बेशुमार चूम लेते , आगोश ए ज़ुल्फ में सुकून से समेट लेते ..
यूँ भुला देते हर रंज ओ आह को जैसे दुखो के मरासिम पे रजनीगंधा गूँथ देते... की हर साँस तेरे शाने पे तहरीर कहती ...रुबाई लिखती ...अपनी बेचैन तमन्नाओ की....
काश तुम ठहर के देख लेते कभी यूँ ही जैसे मैने चाहा था...
मैं उन नज़रो मे प्यास तलाश लेती...अपने बेताब दीदार की प्यास...
उन नज़रो मे दो होंठ उगा लेती ... लफ्ज़ नक्श कर लेती..खुद को मुखातिब करते लफ्ज़...
मगर काश ..काश ही रहा ....
तुमने देखा नही ...ओर मैं तरसती ही रही...
तड़पती ही रही....!!
वो दम बखुद मोबाइल और वाइ फ़ाई के सिग्नल्स जिस शिद्दत से देखता है,
काश उसने यूँ ठहर कर मेरे खामोश लबों की जानिब देखा होता ...
तो पत्थर का बुत भी खुदा से ज़बान माँग बैठता की उसकी नज़र मायूस ना लौटे...
उसकी बेताब नज़र क्या कर सकती थी उसको अंदाज़ा ना था....
अगर वो ठहर के देख लेता तो ...
पोर पोर से शर्म ओ हया के उन्स मे लिपटा पसीना यूँ छलक पड़ता मानो उसने पलकों से भंवर उकेर दिए हो बदन की जिल्द पर....
उसकी नज़रो के लम्स के मुंतज़ीर के मारे लब मेरे ..थरथरा उठते ,गदरा जाते ...इक़रार ए उल्फ़त के शौक़ मे....
बाज़ू नदी हो जाते , जिस्म को छुपा लेते ...
अगर वो देख लेता ...
सिर सजदा मे होता,
आह दुआ बन सांसो से रिहा हो जाती....
और घुरूर आँसुओं सा तुम्हारे क़दमो तले यूँ जमा होता जैसे आँखे बरस के पानी हो चुकी हो और सींच रही हो तुम्हारी तवील उम्र की ख्वाइश को ....
काश तुमने यूँ ही ठहर के देखा होता ....
तुम्हारी इन ठहरी हुई पलकों पे मेरी दुआओं के बोसे होते ,
पलकों के भारीपन को बेशुमार चूम लेते , आगोश ए ज़ुल्फ में सुकून से समेट लेते ..
यूँ भुला देते हर रंज ओ आह को जैसे दुखो के मरासिम पे रजनीगंधा गूँथ देते... की हर साँस तेरे शाने पे तहरीर कहती ...रुबाई लिखती ...अपनी बेचैन तमन्नाओ की....
काश तुम ठहर के देख लेते कभी यूँ ही जैसे मैने चाहा था...
मैं उन नज़रो मे प्यास तलाश लेती...अपने बेताब दीदार की प्यास...
उन नज़रो मे दो होंठ उगा लेती ... लफ्ज़ नक्श कर लेती..खुद को मुखातिब करते लफ्ज़...
मगर काश ..काश ही रहा ....
तुमने देखा नही ...ओर मैं तरसती ही रही...
तड़पती ही रही....!!