Friday, May 8, 2020

A mother in quarantine

~~क्वारन्टाइन में एक माँ~~

कौन सी नज़र, नज़र ए आख़िर थी

ये उस चौखट के सीने मे धसी 

आखरी ख्वाइश सी बेताब नज़र 

की गवाही मे पिन्हां  है ,

वो नज़र जो लख़्त ए जिगर को

फक़त एक बार कलेजे से लगाने की 

बेताबी में अपने होठ 

काट बैठी थी 

लहू फूट पड़ा था सिसकियों से 

उस 2 साला नन्हीं जान की 

पुकार मे मुन्तक़िल  आँखो की उम्मीद पर ,

धड़कनो के बीच महज़ एक पारदर्शी चौखट 

और एक दस्तक का फासला अज़ल तक फैला हुआ ,

करोना मे क्वारन्टाइन एक माँ

जिस के बोसे दरवाज़े की झीरी में दर्ज है 

ममता के बोसे होंठो के निशानात मे साँस लेते है 

काँच की चौखट से अपना धड़कता दिल मंसूब कर

वो सरापा दहलीज़ में तब्दील हो जाना चाहती थी 

हवा बन जाना चाहती थी 

जिस्म उतार देना चाहती थी 

काँच की जिल्द पर दम तोड़ती दस्तक 

को रग़ ए जान मे उतार लेना चाहती थी 

वो चाहती थी उन फूल से गालो और आँसुओं क दरमियाँ 

सुर्खी से भीगे होंठो से तमाम याद चुन ले 

याद अपने माँ होने की, और भुला दे 

उस मासूम के ज़हन से ममता का लम्स 

मगर कुछ भी ना हुआ सिवा इसके 

की वो माँ जिस्म उतार बैठी 

और दरवाज़े से रिस गई...

मगर अब इस पर चीखें दर्ज हैं 

किसी मासूम के नन्हे जिगर को चाक करती 

दरवाज़े पर पुकार की तरह दम तोड़ती हुई 

मगर चीखे दर्ज है,!

Dr Shaista Irshad


अज़ल: eternity
मुन्तक़िल: tranferred
पिन्हां: embedded



Wednesday, May 6, 2020

~~गुफ्तगू~~

~~गुफ्तगू~~

कान को उसके सीने पर रख कर पहली बार मैने उसकी धड़कन नहीं सुननी चाही थी, बस कान टीका दिए, यूँ जैसे कोई लंबे सफ़र के बाद बादलो की जानिब देख कर बारिश की तमन्ना कर बैठे, या फूल हाथ मे लेके ये सोचे की कब तक इसमे लम्स ओ साँस बाक़ी रहेगी, या फिर किसी दरख़्त की छाँव में उसके हरेपन को खुद की साँस में यूँ उतरता महसूस करे जैसे जड़ें ज़मीन की आगोश को भेदती चली जाती हैं! मैने  उसकी धड़कन को खुद मे सोखने के बजाए चाहा था की उसकी ख्वाहिशें , और उसके वो लफ्ज़ जो मेरे अपने दिल को बदस्तूर अंदर से लहू लहू कर रहे थे , वो कानों के ज़रिए वापिस उसके अंदर उतर जाए, जैसे कोई दरिया के सफ़र का रुख़ समंदर से परे मोड़ दे, या सांसो से गुलों की खुश्बू सारी की सारी पी जाए... इस क़दर लफ्ज़ थे, इस क़दर प्यास थी, इस क़दर शोर था , इस क़दर वीरानी थी, बस सब कुछ बेइन्तेहा था, फिर भी मैं खाली खाली थी!
मैं खूब बोलती थी, फिर भी बातों को तरसती ... कोई देखता तो पूछता भला दरिया में रहकर ये तिशनगी  कैसी , और मैं बेलफ्ज़ ही बोलती, मुझे उसकी धड़कनो को सुनते हुए बोलना है, तब बोलना है जब वो सिर्फ़ मुझसे मुखातिब हो, जब उसकी खामोशी में भी मेरी मुहब्बत की लरज़िश हो,  उसकी आवाज़ सिर्फ़ मुझ तक पहुँचे, वहाँ पहुँचे जहा किसी की पुकार की रसाई ना हो...
बातें तो दो रूहों के दरमियाँ की गुफ्तगू है, वो दो दिलों को यूँ जोड़ती है जैसे मुस्कान को होंठो में पिरो कर आँखो में सजाया जाए! मैं चाहती थी मेरे लफ्ज़ जब उसके होंठो को छुएँ तो उसके ज़हन ओ दिल में बो जाएँ , और जुगनू की फसल मेरे शाने पे बिखरे, मेरा चेहरा रोशनी के हाले में हो, उसकी तवज्जो और उलफत का हाला!
मैने सिर्फ़ मुहब्बत पर बहस या गुफ्तगू की सवाली नही थी...मुझे लफ़्ज़ों से हामिला मायनेखेज़ तवज्जो की जूस्तजू थी, और वो दुनिया भर की बात करता मगर मुझसे बेज़ार रहकर, सारी बातें ज़हन का मरकज़ होती मगर वो ना होता जिसकी ख्वाहिश मे कानो की जूस्तजू में तर-बतर फसल बंजर हो चुकी थी...

लफ्ज़ , जब उम्मीद से खारिज हो तो कितना मायूस करते है, ये कोई मुझसे पूछे, ये एकतरफ़ा मुतालबा अपनी रूह ओ ज़हन से करते करते एक मुकम्मल गुफ्तगू का ख्वाब कितना थका देता है कोई मुझसे पूछे...!!



Monday, May 4, 2020

दुल्हन

दुल्हन

एक वक़्त ऐसा था लड़कियों को आईना देखने की इजाज़त नही थी .. लेकिन लड़कियाँ खुद को ना निहारे
तो अल्हड़पन को कैसे पार करती... १ पैसे की सुर्खी खरीद लाती ओर चुपके से होंठों पर रगड़ के 
मटके मे मुँह डाल देती... अंधेरे मटके के पानी में ढुंधलया सा अक्स जाने कैसी खुशी देता था...अपने कामिनी कमसिन से रंग में लबरेज़ खुद को हसीन मान के बेपनाह ख्वाब सजा लेती... खूबसूरत लगने का शौक़... सराहे जाने की आरज़ू जाने कितने सदियों से चली आ रही है...

ये अच्छा लगना क्या होता है ..."वो" नही जानती थी , बस एक अफ़सुरदगी उसकी ज़ात का हिस्सा थी - गहरा साँवलापन जैसे उसके घर वालो ने उसके तन बदन पर खींच दिया था, उसकी शनाख्त बना कर उसका आसमान, उसका उफक़ बना दिया था, और रह गई थी उसके पास कलम और स्याही , अपने रंग के ज़ेर ए नज़र सारी स्याह चीज़े दिल के क़रीब होती गई... स्याही,  रात, आँखे,  और ग्रॅफाइट !

उस दौर के खिलते फूल ओर ज़र्द पड़ते पत्तों ने उसकी खामोशी की गुफ्तगू को बारहा सुना होगा ,  उसके पास और कोई नही था जो उसको खूबसूरती का मतलब समझा सके.... आईने से भी कोई दोस्ती नही रही थी! कभी बहोत तजस्सुस होता तो माँ के घुटनो मे मुँह दे लेती और पूछ लेती ..अम्मा आप के वक़्त मे खूबसूरत लगना क्या होता था?? 
तभी उन्होने ये क़िस्सा सुनाया था...
"पहले के लोग ऐसा मानते थे की अगर लड़कियाँ खुद की खूबसूरती से वाक़िफ़ हो जाएँगी तो किसी सराहने वाले की मुन्तज़र होके अपने कदम बहका बैठेंगी, वो खुद को देख ना सके इसी लिए घर मे आईना नही रखा जाता था!
मगर ये जब नौ-उमरी के गुल खिलते है तो दिलकशी अपनी शनाख्त ढूँदने के सारे तौर तरीक़े आज़माती है!, १ पैसे की सुर्खी मिला करती थी, वही  सुर्खी लगा के मटके मे मुँह देखना, और अपनी परछाई से इश्क़ कर बैठना....!

फिर शुरू होता है दुल्हन बनने का इंतज़ार...बस एक तारीफ ओर मुहब्बत करने वाला दरकार होता है जिसके लिए लड़कियाँ  सेर भर उबटन बदन पर मलने को गर्मियों मे भी तैयार रहती थीं! फिर सुर्ख जोड़ा और नाक मे नथिया...और बस हो गया ख्वाब पूरा....पहले मेहन्दी ये कोहनियों तक डिज़ाइन वाली नही लगाई जाती थी , बस मेहन्दी की हरी पत्ती को सिल और बट्‍टे पर पीस कर एक गोला बना कर मुठ्ठी बाँध दी जाती थी! लड़कियाँ बंचपन से ही मेहन्दी से शर्त लगा बैठती हैं...तुम्हे लाल होना है मेरी हथेली पर..क्योंकि मेरा खाविंद मुझे बेहद
 चाहेगा! एक दुल्हन के शर्माए वजूद से जब उबटन,  मेहन्दी ,इत्र ओर मोगरे की मिली जुली खुश्बू आती तो पास बैठी , ज़बरदस्ती को आँसू बहाती सखियों , का ईमान भी डगमगा जाता था!

एक और खवाब भी था..डोली/ पालकी मे बैठने और खुद को क़ीमती समझने का.... मगर ग़रीब घरो मे डोली नही  रिक्शा मँगवाया जाता था...जिस पर चादर बाँध देते थे ताक़ि दुल्हन का  उजला  रूप दूल्हा से पहले कोई ना देखे. रिक्शा में बैठने से पहले और बैठने के बाद भी ,कितनी बार दुल्हन रो कर बेहोश होती थी! बिदाई के आँसू होते थे , वो समझती थी घर से बिदाई के..मगर असल में वो उसके खुद से जुदा होने के आँसू होते थे , अल्हाड़पन से रुखसती के, मासूमियत, बेफिक्री, चाँद , हवा, बारिश से रुखसती के...!
फिर घूँघट खोल के  नथिया उठा के पानी पीना भी दुल्हन को नाज़ ओ अदा  से भर देता था..छोटी और मासूम खुशियाँ..जो बाद मे बड़ी बड़ी बातों पर बात बेबात क़ुरबान होंगी, उसके तसवउर मे नही था...!
ख्वाब तो बेहद सारे थे....मगर बस शादी तक...फिर तो हक़ीक़त होनी थी..कड़वी हक़ीक़त!
अपनी ही परछाई से इश्क़ कर बैठने वाली लड़की बड़ी सहजता और सादगी से उसी परछाई के ख़ाके में अपने शरीक़  ए सफ़र का सरापा मुँह तक भर लेती , और जब सब छलकने लगता तो कहती ,औरत का नसीब यही होता है...हाँ अब वो औरत है... एक रात में  , एक सदी, एक उम्र, एक उफक़, और एक दौर, एक शनाख्त, एक नाम और ख़ुशियों  के दाम सब बदल जाते हैं.... अब वो खुद से नही किसी और से मुहब्बत करती है...और फिर मुहब्बत ख़त्म!






  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...