दुल्हन
एक वक़्त ऐसा था लड़कियों को आईना देखने की इजाज़त नही थी .. लेकिन लड़कियाँ खुद को ना निहारे
तो अल्हड़पन को कैसे पार करती... १ पैसे की सुर्खी खरीद लाती ओर चुपके से होंठों पर रगड़ के
मटके मे मुँह डाल देती... अंधेरे मटके के पानी में ढुंधलया सा अक्स जाने कैसी खुशी देता था...अपने कामिनी कमसिन से रंग में लबरेज़ खुद को हसीन मान के बेपनाह ख्वाब सजा लेती... खूबसूरत लगने का शौक़... सराहे जाने की आरज़ू जाने कितने सदियों से चली आ रही है...
ये अच्छा लगना क्या होता है ..."वो" नही जानती थी , बस एक अफ़सुरदगी उसकी ज़ात का हिस्सा थी - गहरा साँवलापन जैसे उसके घर वालो ने उसके तन बदन पर खींच दिया था, उसकी शनाख्त बना कर उसका आसमान, उसका उफक़ बना दिया था, और रह गई थी उसके पास कलम और स्याही , अपने रंग के ज़ेर ए नज़र सारी स्याह चीज़े दिल के क़रीब होती गई... स्याही, रात, आँखे, और ग्रॅफाइट !
उस दौर के खिलते फूल ओर ज़र्द पड़ते पत्तों ने उसकी खामोशी की गुफ्तगू को बारहा सुना होगा , उसके पास और कोई नही था जो उसको खूबसूरती का मतलब समझा सके.... आईने से भी कोई दोस्ती नही रही थी! कभी बहोत तजस्सुस होता तो माँ के घुटनो मे मुँह दे लेती और पूछ लेती ..अम्मा आप के वक़्त मे खूबसूरत लगना क्या होता था??
तभी उन्होने ये क़िस्सा सुनाया था...
"पहले के लोग ऐसा मानते थे की अगर लड़कियाँ खुद की खूबसूरती से वाक़िफ़ हो जाएँगी तो किसी सराहने वाले की मुन्तज़र होके अपने कदम बहका बैठेंगी, वो खुद को देख ना सके इसी लिए घर मे आईना नही रखा जाता था!
मगर ये जब नौ-उमरी के गुल खिलते है तो दिलकशी अपनी शनाख्त ढूँदने के सारे तौर तरीक़े आज़माती है!, १ पैसे की सुर्खी मिला करती थी, वही सुर्खी लगा के मटके मे मुँह देखना, और अपनी परछाई से इश्क़ कर बैठना....!
फिर शुरू होता है दुल्हन बनने का इंतज़ार...बस एक तारीफ ओर मुहब्बत करने वाला दरकार होता है जिसके लिए लड़कियाँ सेर भर उबटन बदन पर मलने को गर्मियों मे भी तैयार रहती थीं! फिर सुर्ख जोड़ा और नाक मे नथिया...और बस हो गया ख्वाब पूरा....पहले मेहन्दी ये कोहनियों तक डिज़ाइन वाली नही लगाई जाती थी , बस मेहन्दी की हरी पत्ती को सिल और बट्टे पर पीस कर एक गोला बना कर मुठ्ठी बाँध दी जाती थी! लड़कियाँ बंचपन से ही मेहन्दी से शर्त लगा बैठती हैं...तुम्हे लाल होना है मेरी हथेली पर..क्योंकि मेरा खाविंद मुझे बेहद
चाहेगा! एक दुल्हन के शर्माए वजूद से जब उबटन, मेहन्दी ,इत्र ओर मोगरे की मिली जुली खुश्बू आती तो पास बैठी , ज़बरदस्ती को आँसू बहाती सखियों , का ईमान भी डगमगा जाता था!
एक और खवाब भी था..डोली/ पालकी मे बैठने और खुद को क़ीमती समझने का.... मगर ग़रीब घरो मे डोली नही रिक्शा मँगवाया जाता था...जिस पर चादर बाँध देते थे ताक़ि दुल्हन का उजला रूप दूल्हा से पहले कोई ना देखे. रिक्शा में बैठने से पहले और बैठने के बाद भी ,कितनी बार दुल्हन रो कर बेहोश होती थी! बिदाई के आँसू होते थे , वो समझती थी घर से बिदाई के..मगर असल में वो उसके खुद से जुदा होने के आँसू होते थे , अल्हाड़पन से रुखसती के, मासूमियत, बेफिक्री, चाँद , हवा, बारिश से रुखसती के...!
फिर घूँघट खोल के नथिया उठा के पानी पीना भी दुल्हन को नाज़ ओ अदा से भर देता था..छोटी और मासूम खुशियाँ..जो बाद मे बड़ी बड़ी बातों पर बात बेबात क़ुरबान होंगी, उसके तसवउर मे नही था...!
ख्वाब तो बेहद सारे थे....मगर बस शादी तक...फिर तो हक़ीक़त होनी थी..कड़वी हक़ीक़त!
अपनी ही परछाई से इश्क़ कर बैठने वाली लड़की बड़ी सहजता और सादगी से उसी परछाई के ख़ाके में अपने शरीक़ ए सफ़र का सरापा मुँह तक भर लेती , और जब सब छलकने लगता तो कहती ,औरत का नसीब यही होता है...हाँ अब वो औरत है... एक रात में , एक सदी, एक उम्र, एक उफक़, और एक दौर, एक शनाख्त, एक नाम और ख़ुशियों के दाम सब बदल जाते हैं.... अब वो खुद से नही किसी और से मुहब्बत करती है...और फिर मुहब्बत ख़त्म!