~~गुफ्तगू~~
मैं खूब बोलती थी, फिर भी बातों को तरसती ... कोई देखता तो पूछता भला दरिया में रहकर ये तिशनगी कैसी , और मैं बेलफ्ज़ ही बोलती, मुझे उसकी धड़कनो को सुनते हुए बोलना है, तब बोलना है जब वो सिर्फ़ मुझसे मुखातिब हो, जब उसकी खामोशी में भी मेरी मुहब्बत की लरज़िश हो, उसकी आवाज़ सिर्फ़ मुझ तक पहुँचे, वहाँ पहुँचे जहा किसी की पुकार की रसाई ना हो...
बातें तो दो रूहों के दरमियाँ की गुफ्तगू है, वो दो दिलों को यूँ जोड़ती है जैसे मुस्कान को होंठो में पिरो कर आँखो में सजाया जाए! मैं चाहती थी मेरे लफ्ज़ जब उसके होंठो को छुएँ तो उसके ज़हन ओ दिल में बो जाएँ , और जुगनू की फसल मेरे शाने पे बिखरे, मेरा चेहरा रोशनी के हाले में हो, उसकी तवज्जो और उलफत का हाला!
मैने सिर्फ़ मुहब्बत पर बहस या गुफ्तगू की सवाली नही थी...मुझे लफ़्ज़ों से हामिला मायनेखेज़ तवज्जो की जूस्तजू थी, और वो दुनिया भर की बात करता मगर मुझसे बेज़ार रहकर, सारी बातें ज़हन का मरकज़ होती मगर वो ना होता जिसकी ख्वाहिश मे कानो की जूस्तजू में तर-बतर फसल बंजर हो चुकी थी...
लफ्ज़ , जब उम्मीद से खारिज हो तो कितना मायूस करते है, ये कोई मुझसे पूछे, ये एकतरफ़ा मुतालबा अपनी रूह ओ ज़हन से करते करते एक मुकम्मल गुफ्तगू का ख्वाब कितना थका देता है कोई मुझसे पूछे...!!
koi mujse pooche ??lekin wo na sabal ho aur na jabab ka muntjir
ReplyDeleteवाक़ई ,,,गुफ़्तगू भी एक ख्वाहिश बन भर रह जाए तो रिश्तों की गहराई मापने की ज़रूरत नही रह जाती ।
ReplyDeleteविचारनीय पहलू ,सुंदर रचना ।