Thursday, April 9, 2015



परछाईं के बदन के
इस पार से उस पार तक
उफ़क़ की पुकार से
दिल ए बेक़रार तक
उलझनों के तूफान में
बेपनाह रफ़्तार में
क़दम छूट गए कहीं
कोहनियाँ लहू लहू हुई
रिस गाए ज़ख़्म भी
बेचैनियाँ भरी हुईं
एक क़तरा सुकून हो
सूखे होंठो की पुकार को
भिगो दे मेरी प्यास को
क़रार दे क़रार को
थक जाऊँ काश किसी तरह
सुकून मिले, पनाह मिले
ज़मीन तेरी आगोश मिले...


तेरे होंठो पर आवाज़ मे ढल के
तेरी सांसो को पीकर
लफ्ज़ ज़िंदा हुए मेरे
जज़्बातों को शनासाई मिली
हसरतों को गवाही मिली....
ज़ुदा हुए
हवा हुए
खुश्बू बने
आरज़ू हुए
तेरे होंठो की दरारों मे जब
लफ्ज़ पिन्हां हुए मेरे...
अब्र बने
दुआ हुए...
अदा हुए
रीदा हुए...
लफ्ज़ तबीर बने मेरे....

  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...