Thursday, April 3, 2014



~~ढूँढती हूँ~~ Ek Ghazal

रोज़मर्रा के कामों मे अपनी पहचान ढ़ूँढती हूँ
जो खुद से मिला मुझको वो समान ढूँढती हूँ
देखे चाँद मुझको एक ज़माना गुज़र गया है
दिख जाए गर चाँद तो अपनी "जान" ढूँढती हूँ
समझे जो मेरी चुप को तौले ना मेरे लफ्ज़ को
खामोशियों का एक ऐसा क़दरदान ढूँढती हूँ
शजर जिसके खुश्बू, रहगुज़ार में जिसके खुश्बू
खुश्बुओ से मोअत्तर एक गुलिस्ताँ ढूँढती हूँ
खामोशियों से ला दे इंक़लाब सबके दिल में
लफ़ज़ो को करदे निहत्था वो बेज़बान ढूँढती हूँ
वार दे अपना सब कुछ वाल्दैन के लिए जो
औलाद की ज़िंदगी की ऐसी दास्तान ढूँढती हूँ



#shaista








यह पलकें...यह नींद का बोझ और तेरी खुश्बू की पनाह
क़तरा क़तरा उतर रहा है सुकून मुझमे ख्वाब की तरह... 


आँसुओ की सूरत ,तेरे सीने मे जज़्ब है मेरी अनकही मुहब्बत की निशानियाँ..
एक बार लगाया था गले से तूने मेरी आँखो को रोता देखकर....




वो आतिश ,वो आँच है ऐ साहिर लहजे मे तेरे....
मेरे जज़बों पर जमी खामोशी की बर्फ बेइख्त्यार पिघलती जाती है...


  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...