~~दरीचा~~
तुम उस तवील गुफ्तगू के सहरा में
उस दरीचे की तरह हो
जिससे बिन मौसम बरसात हो जाने पर
मिटटी के भीगे बदन की खुशबु आए ,
वह दरीचा जो सांस भर उम्मीद
और जुमले भर लफ्ज़ देता है,
वह जुमला जो
कानो का मुन्तज़िर
अपने होने का अहसास यूँ पाता है
जैसे पसीना शिद्दत ए गर्मी पी कर
हर रोए से फूट कर निकले ,
पेशानी पर जमा उस पारदर्शी बूँद सा
जिसमें झाँक कर देखा जा सकता है की
कश्मकश की शिद्दत कितनी गहरी उतरी है ,
की ख्वाइश इस कैफियत का वज़न
पलकों पर उठा लेना चाहती है , हाँ
हाँ उस दरीचे से नज़रआती कैफियत का ।
मैंने अब तक नाम नहीं दिया है दरीचे को ,
न ही किसी जज़्बे की गुलामी में तक़सीम किये है
उससे जुड़े जज़्बात को,
हाँ अभी जज़्बात अनछुए से है
जैसे दरीचे के इस पार से उस पार तक
एक पाक फासला
इसी फासले की नज़र वह अनकहा मरासिम
हौले हौले सांस लेता है
क्योंकि मैंने सुना है उस दरीचे को धड़कते हुए !
डॉ शाइस्ता इरशाद
You reminded Deewar mai ek khidiki rehti thi a famous awarded book by Vinod Shukla
ReplyDeletethank you so much
ReplyDelete