Friday, March 14, 2014







एक गुफ्तगू पत्ते की फूल से ...........


अपने बदन का खून निचोड़ के 
आ तुझे शादाब कर दूँ
सुर्ख रंगो का घूँघट ऊढा के
हर कली का ख्वाब कर दूँ
बनके पैरहन उन शोख तराशी शाखों पर
सजा के वजूद के हर खम को
खिले तू दियों की तरह मुंडेर पर
तू मदहोश है अपनी जवानी में
भड़का के आग पानी में
मेरी रगें टूटती हैं अब
साँस भी छूटती है अब
मैं पतझड़ की आहट पर बिखर जाऊँगा
शाखों से टूट के तुमसे बिछड़ जाऊँगा
ज़मीन मुझे खुद में चुभो लेगी
फिर भी सनम कहाँ तुझको भूल पाऊँगा
अपने तन पे इंतेज़ार पिरो लूँगा
क़ब्र पर दिल-ए-बेक़रार सॅंजो लूँगा
जब जश्न-ए-बाहर का मौसम गुज़रेगा
शाखों से फूलों का पैरहन उतरेगा
अपनी बेरंग पंखुड़ियों समेत तू मुझपे उतरेगी
तेरी सुर्खी मेरी शोखी के दहन से गुज़रेगी
तब मैं मुहब्बत पाऊँगा
और हमेशा के लिए सो जाऊँगा

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