एक "आम सी ज़िंदगी"
जब "वो "होती है,
तो महसूस नहीं होती ,
सब पर ध्यान होता है ,
"सिवा उसके!"
मौसम बदलते जाते हैं,
उलझनों में क़ैद
सांसे मद्धम चलती हैं,
फेफड़ों तक पांव पसारने की मशक्कत में,
योग और ध्यान तक आती हुई सांसे,
सब कुछ छू आती हैं,
"सिवा उसके! "
हाथों से हाथ छू जाए उनके
तो सिहरन भी
ना महसूस हो,
एक छुअन भी अनछुई हो जाती हैं,
सब कुछ छू कर भी
"सिवा उसके !"
नन्हें हाथों को बेसाख्ता गालों से लगा लेना
मासूम वजूद को सीने में भींच लेना
ये सब होते हुए भी
नमौजूद सा होता है
"सिवा उसके "!
वो जब नहीं होती, छुअन को तड़पता वजूद
मासूम की नन्ही बाहें को पुकारता
कितना याद करता है "उसको ",
एक "आम सी ज़िंदगी को" !
एक "आम सी ज़िंदगी"
कितनी कीमती होती है
मुझ से पूछो!
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