Monday, March 10, 2014




सोचों को फिर परवाज़ दो

क़लम में खून भर रही हूँ 
थोड़ा जुनून भर रही हूँ
इन आँखो में जो पानी है
मेरी मशक्कत की कहानी है
ना वक़्त साज़गार था
मौसम भी नागवार था
अंधेरोन से ना शनसाई थी
नज़रों में ना बीनाई थी
तसल्ली टकरा कर कानों से
ज़मीन की गोद में समाई थी
जमे हुए क़दम थे
था रुका हुआ सा वक़्त
इन क़दमों को रवानी मिल जाए
ये वक़्त पानी सा बह जाए
उस रब से यही दुहाई थी
कहाँ तेरी मसीहाई थी
फिर माँ की गोद नज़र आई
मैं रेत की मानिंद ढह आई
सुन बेआवाज़ तड़प मेरी
उंगलियाँ पेशानी पर फेरी
सीने से लगा कर बहलाया
भोली सी मुस्कान से समझाया
देख जहाँ तेरे आँसू गिरे
वहाँ वहाँ हैं फूल खिले
यह फूल हैं उम्मीदों के
बेआराम रातों की नींदों के
दिल तेरा जब जब था घबराया
खुद फलक़ से खुदा उतार आया
आज़माइश के लम्हें अब
गुज़ार चुकी है तू
मुश्किलें भी माँ के सदक़े 
अब वार चुकी है तू....
साँसों में भर आवाज़ को
सोचों को फिर परवाज़ दो




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