~~ नया नार्मल~~
शाम मध्धम रंगो की ज़रख़ेज़ी लिए हमेशा की तरह नार्मल लग रही थी मगर उसकी रेशमियां अपने लम्स की दस्तरस में मौजूद सभी चीज़ो को नार्मल होने और नार्मल नज़र के दरमियान का फ़र्क़ मानो समझा रही हो! "नार्मल नज़र आना" या यूँ कहिये "नज़र आना ", शायद यही एक चीज़ हमें दुनिया की तमाम मखलूक से मुख्तलिफ बनाती है, ! "होने" और "नज़र आने " के दरमियान जद्दोजहद, ईमानदारी या झूट को ही ज़िन्दगी कहते है शायद!
ज़िन्दगी यूँ महसूस होती है जैसे। जैसे सफर के आगे का सफर हो , यूँ जैसे रेस में भागते हुए जब लाल रिबन पार करने के बाद जो मोमेन्टम बरक़रार रहता है, की क़दम ठहरने में वक़्त लगता है, इनर्शिया हासिल होते होते मंज़िल दूर छूट चुकी होती है... बस ज़िन्दगी उन्ही न ठहरते क़दमों के दरमियानी मायनी में उलझ सी गई हो, या फिर जब मुलायम बिस्तर पर नन्हे बच्चे को कहानी सुनाते हुए जब कहानी भूल जाए और सुनाने वाला बस लफ्ज़ो में सांस भरता रहे.... ज़िन्दगी उन्ही कहानियों सी हो गई...बस पूरा होने की ज़रूरत सी, ... या फिर कहानी सुनने वाला जब सुनते हुए बीच में ही सो जाए.... तो जो लफ्ज़ ओ ख़याल भटक जाते है..उन्ही भटके हुए लफ्ज़ो सी...! ये जो नज़र आने की उम्मीद होती है ना , सामने वाली की बीनाई पे कुढ़ा करती है, यहाँ तक की दो आँखे भी दे बैठती है नादानी में, लफ्ज़ो की आँखे, अहसास ओ मुहब्बत की आँखे , मगर लफ्ज़ो से, बंजर ज़मीन तब तक ज़रखेज़ नहीं हो सकती जब तक ज़मीन क़ुबूल न करे ! और इस बात को क़ुबूल करने में कभी कभी तमाम उम्र खर्चनी पड़ जाती है की कोई शामिल ए हयात रहा, क़ुबूल न किया जा सका !
ज़िन्दगी पर बात तो तमाम ज़िंदग हो सकती है और फिर भी कोई नतीजा हासिल हो ये ज़रूरी नहीं ! ये कुछ दिनों का लॉकडाउन , और यूँ लगता है ज़िन्दगी की गिरह खुल गई हो, जैसे "होने और नज़र आने" का फ़र्क़ बेहतर समझ आया हो, ये तस्लीम हुआ हो की अपने अंदर को अपने बाहर से मिला लेने का वक़्त है, ये मान लेने का वक़्त है की खुद में क्या गलत रहा , क्या सही रहा! क्या ज़रूरत रही और क्या मुहब्बत रही! कहाँ दायरा खींचना है और कहाँ तहलील होकर जज़्ब हो जाना है! अपनेआपसे भागने का वक़्त ,ख़त्म हुआ, और अपनी ही नज़र में पशेमानी का वक़्त शुरू हुआ ! नफा- नुक्सान अयाँ हुआ , कहाँ इस्तेमाल हुए, कहा मर्ज़ी से मिट गए !
जिस्म की खुराक से ऊपर उठ कर रूह को मोअतबर करने का सिलसिला रहा ये लॉकडाउन ! वह आँखे जो ये बता सके अपनी आँखों से देखना क्या होता है? अपनी मर्ज़ी से जीना क्या होता है, दुनिया की ख्वाइश की पीठ से उतर के अपनी रफ़्तार से चलना क्या होता है, "ना "कहना क्या है और ,हाँ के क्या मायने हैं? आँखे बंद करके अपने अंदर देखने का सुकून क्या है, वह देखना जो खुदा है और खुद में है!
चिराग के धुंए में था तलाश रहा मक़सद ए हयात
आँख को नज़रिया मिला , मिला हाथ को अपना हाथ !
ज़िन्दगी यूँ महसूस होती है जैसे। जैसे सफर के आगे का सफर हो , यूँ जैसे रेस में भागते हुए जब लाल रिबन पार करने के बाद जो मोमेन्टम बरक़रार रहता है, की क़दम ठहरने में वक़्त लगता है, इनर्शिया हासिल होते होते मंज़िल दूर छूट चुकी होती है... बस ज़िन्दगी उन्ही न ठहरते क़दमों के दरमियानी मायनी में उलझ सी गई हो, या फिर जब मुलायम बिस्तर पर नन्हे बच्चे को कहानी सुनाते हुए जब कहानी भूल जाए और सुनाने वाला बस लफ्ज़ो में सांस भरता रहे.... ज़िन्दगी उन्ही कहानियों सी हो गई...बस पूरा होने की ज़रूरत सी, ... या फिर कहानी सुनने वाला जब सुनते हुए बीच में ही सो जाए.... तो जो लफ्ज़ ओ ख़याल भटक जाते है..उन्ही भटके हुए लफ्ज़ो सी...! ये जो नज़र आने की उम्मीद होती है ना , सामने वाली की बीनाई पे कुढ़ा करती है, यहाँ तक की दो आँखे भी दे बैठती है नादानी में, लफ्ज़ो की आँखे, अहसास ओ मुहब्बत की आँखे , मगर लफ्ज़ो से, बंजर ज़मीन तब तक ज़रखेज़ नहीं हो सकती जब तक ज़मीन क़ुबूल न करे ! और इस बात को क़ुबूल करने में कभी कभी तमाम उम्र खर्चनी पड़ जाती है की कोई शामिल ए हयात रहा, क़ुबूल न किया जा सका !
ज़िन्दगी पर बात तो तमाम ज़िंदग हो सकती है और फिर भी कोई नतीजा हासिल हो ये ज़रूरी नहीं ! ये कुछ दिनों का लॉकडाउन , और यूँ लगता है ज़िन्दगी की गिरह खुल गई हो, जैसे "होने और नज़र आने" का फ़र्क़ बेहतर समझ आया हो, ये तस्लीम हुआ हो की अपने अंदर को अपने बाहर से मिला लेने का वक़्त है, ये मान लेने का वक़्त है की खुद में क्या गलत रहा , क्या सही रहा! क्या ज़रूरत रही और क्या मुहब्बत रही! कहाँ दायरा खींचना है और कहाँ तहलील होकर जज़्ब हो जाना है! अपनेआपसे भागने का वक़्त ,ख़त्म हुआ, और अपनी ही नज़र में पशेमानी का वक़्त शुरू हुआ ! नफा- नुक्सान अयाँ हुआ , कहाँ इस्तेमाल हुए, कहा मर्ज़ी से मिट गए !
जिस्म की खुराक से ऊपर उठ कर रूह को मोअतबर करने का सिलसिला रहा ये लॉकडाउन ! वह आँखे जो ये बता सके अपनी आँखों से देखना क्या होता है? अपनी मर्ज़ी से जीना क्या होता है, दुनिया की ख्वाइश की पीठ से उतर के अपनी रफ़्तार से चलना क्या होता है, "ना "कहना क्या है और ,हाँ के क्या मायने हैं? आँखे बंद करके अपने अंदर देखने का सुकून क्या है, वह देखना जो खुदा है और खुद में है!
चिराग के धुंए में था तलाश रहा मक़सद ए हयात
आँख को नज़रिया मिला , मिला हाथ को अपना हाथ !