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Monday, May 18, 2020

NEW NORMAL- ~~ नया नार्मल~~

                                                                     ~~ नया नार्मल~~ 


शाम मध्धम रंगो की ज़रख़ेज़ी लिए हमेशा की तरह  नार्मल लग रही थी  मगर उसकी रेशमियां अपने लम्स की दस्तरस में मौजूद सभी चीज़ो को नार्मल होने और नार्मल नज़र के दरमियान का फ़र्क़ मानो समझा रही हो! "नार्मल नज़र आना" या यूँ कहिये "नज़र आना ", शायद यही एक चीज़ हमें दुनिया की तमाम मखलूक से मुख्तलिफ बनाती है,  ! "होने" और  "नज़र आने " के दरमियान  जद्दोजहद, ईमानदारी या झूट को ही ज़िन्दगी कहते है शायद!
ज़िन्दगी यूँ महसूस होती है जैसे। जैसे सफर के आगे का सफर हो , यूँ जैसे  रेस में भागते हुए जब लाल रिबन पार करने के  बाद जो मोमेन्टम बरक़रार रहता है, की क़दम ठहरने में वक़्त लगता है, इनर्शिया  हासिल होते होते मंज़िल दूर छूट चुकी होती है... बस ज़िन्दगी उन्ही न ठहरते  क़दमों के दरमियानी मायनी में उलझ सी गई हो, या फिर जब मुलायम बिस्तर पर नन्हे बच्चे को कहानी सुनाते  हुए जब कहानी भूल जाए और सुनाने  वाला बस लफ्ज़ो में सांस  भरता रहे.... ज़िन्दगी उन्ही कहानियों सी हो गई...बस पूरा होने की ज़रूरत सी, ... या फिर कहानी सुनने वाला जब सुनते हुए बीच में ही सो  जाए.... तो जो  लफ्ज़ ओ  ख़याल  भटक जाते है..उन्ही  भटके हुए लफ्ज़ो सी...! ये जो नज़र आने की उम्मीद होती है ना , सामने वाली की बीनाई  पे कुढ़ा करती है, यहाँ तक की दो आँखे भी दे बैठती है नादानी में, लफ्ज़ो की आँखे, अहसास ओ मुहब्बत की  आँखे , मगर लफ्ज़ो से, बंजर ज़मीन तब तक ज़रखेज़ नहीं हो सकती जब तक  ज़मीन क़ुबूल न करे ! और इस बात को क़ुबूल करने में कभी कभी तमाम उम्र खर्चनी पड़  जाती है की कोई शामिल ए हयात रहा, क़ुबूल न किया जा सका ! 

ज़िन्दगी पर बात तो तमाम  ज़िंदग हो सकती है और  फिर भी कोई नतीजा हासिल हो ये ज़रूरी नहीं ! ये कुछ दिनों का लॉकडाउन , और यूँ लगता है ज़िन्दगी की गिरह खुल गई हो,  जैसे "होने और नज़र आने" का फ़र्क़  बेहतर समझ आया हो, ये तस्लीम हुआ हो की अपने अंदर को अपने बाहर से मिला लेने का वक़्त है, ये मान लेने का वक़्त है की खुद में क्या गलत रहा , क्या सही रहा! क्या ज़रूरत रही और  क्या मुहब्बत रही! कहाँ  दायरा खींचना है और कहाँ  तहलील होकर जज़्ब हो जाना है! अपनेआपसे भागने का वक़्त ,ख़त्म हुआ, और अपनी ही नज़र में पशेमानी  का वक़्त शुरू हुआ ! नफा- नुक्सान  अयाँ हुआ , कहाँ  इस्तेमाल हुए, कहा मर्ज़ी से मिट गए !
जिस्म की खुराक से ऊपर उठ कर रूह को मोअतबर करने का  सिलसिला  रहा ये लॉकडाउन ! वह आँखे  जो ये बता सके अपनी आँखों से देखना क्या होता है? अपनी मर्ज़ी से जीना क्या होता है, दुनिया की ख्वाइश की पीठ से उतर के अपनी रफ़्तार से चलना क्या होता है, "ना "कहना  क्या  है और  ,हाँ के क्या मायने हैं? आँखे बंद करके अपने अंदर देखने का सुकून क्या है, वह देखना जो खुदा है और खुद में है! 

चिराग के धुंए में था तलाश रहा  मक़सद ए हयात 
आँख को नज़रिया  मिला , मिला हाथ को अपना हाथ !










Sunday, May 10, 2020

~~मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ~~

~~मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ~~

मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ
जो सरापा फूल बन जाते 
तुम्हारी ज़ूलफें अगर छूते 
कानों के ज़रा ऊपर 
गुलाबी जिल्द पर उभरी 
हरी उस नस की धड़कन को
अपनी रग मे धड़कIते !


मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ
जो सरापा फूल बन जाते 
तेरी मासूम लट थामे
गरदन तक उतर आते 
उलझे ख़म को सुलझाते 
सुलह आपस मे करवाते 
और हर एक बोसे मे
बहार ओ गुल खिला जाते!


मैं खुहबु का क़ाफ़िला हूँ
जो सरापा फूल बन जाते 
तुम्हारी उंगलियों में 
जो शर्मगी लम्स ठहरा है 
उस लम्स की सांसो मे 
अपनी साँसे पिरो जाते 
वो साँसे फिर खनक उठती 
सिहरती सुर्ख़ चूड़ियों मे 
उंगली दाँत की हमराह 
फिर शर्मा का बिछ जाती 
उनसे उभरी शोखी में 
हम ही हम नज़र आते !


मैं खुश्बू का काफिला हूँ
जो सरापा फूल बन जाते 
तेरे पाँव की एड़ी से 
लम्स बन कर, सदा बन कर
दुआओं सा बिखर जाते 
नक्श-ए- पा पर फिर तेरे 
सदजो की तरह बिछ कर
आरज़ुओं को मनवाते 
मैं खुश्बू का काफिला हूँ
जो सरIपा फूल बन जाते!!

Dr Shaista Irshad 
नक्श-ए- पा: footprints
शर्मगी: shy 
सिहरती: shivering


Monday, May 4, 2020

दुल्हन

दुल्हन

एक वक़्त ऐसा था लड़कियों को आईना देखने की इजाज़त नही थी .. लेकिन लड़कियाँ खुद को ना निहारे
तो अल्हड़पन को कैसे पार करती... १ पैसे की सुर्खी खरीद लाती ओर चुपके से होंठों पर रगड़ के 
मटके मे मुँह डाल देती... अंधेरे मटके के पानी में ढुंधलया सा अक्स जाने कैसी खुशी देता था...अपने कामिनी कमसिन से रंग में लबरेज़ खुद को हसीन मान के बेपनाह ख्वाब सजा लेती... खूबसूरत लगने का शौक़... सराहे जाने की आरज़ू जाने कितने सदियों से चली आ रही है...

ये अच्छा लगना क्या होता है ..."वो" नही जानती थी , बस एक अफ़सुरदगी उसकी ज़ात का हिस्सा थी - गहरा साँवलापन जैसे उसके घर वालो ने उसके तन बदन पर खींच दिया था, उसकी शनाख्त बना कर उसका आसमान, उसका उफक़ बना दिया था, और रह गई थी उसके पास कलम और स्याही , अपने रंग के ज़ेर ए नज़र सारी स्याह चीज़े दिल के क़रीब होती गई... स्याही,  रात, आँखे,  और ग्रॅफाइट !

उस दौर के खिलते फूल ओर ज़र्द पड़ते पत्तों ने उसकी खामोशी की गुफ्तगू को बारहा सुना होगा ,  उसके पास और कोई नही था जो उसको खूबसूरती का मतलब समझा सके.... आईने से भी कोई दोस्ती नही रही थी! कभी बहोत तजस्सुस होता तो माँ के घुटनो मे मुँह दे लेती और पूछ लेती ..अम्मा आप के वक़्त मे खूबसूरत लगना क्या होता था?? 
तभी उन्होने ये क़िस्सा सुनाया था...
"पहले के लोग ऐसा मानते थे की अगर लड़कियाँ खुद की खूबसूरती से वाक़िफ़ हो जाएँगी तो किसी सराहने वाले की मुन्तज़र होके अपने कदम बहका बैठेंगी, वो खुद को देख ना सके इसी लिए घर मे आईना नही रखा जाता था!
मगर ये जब नौ-उमरी के गुल खिलते है तो दिलकशी अपनी शनाख्त ढूँदने के सारे तौर तरीक़े आज़माती है!, १ पैसे की सुर्खी मिला करती थी, वही  सुर्खी लगा के मटके मे मुँह देखना, और अपनी परछाई से इश्क़ कर बैठना....!

फिर शुरू होता है दुल्हन बनने का इंतज़ार...बस एक तारीफ ओर मुहब्बत करने वाला दरकार होता है जिसके लिए लड़कियाँ  सेर भर उबटन बदन पर मलने को गर्मियों मे भी तैयार रहती थीं! फिर सुर्ख जोड़ा और नाक मे नथिया...और बस हो गया ख्वाब पूरा....पहले मेहन्दी ये कोहनियों तक डिज़ाइन वाली नही लगाई जाती थी , बस मेहन्दी की हरी पत्ती को सिल और बट्‍टे पर पीस कर एक गोला बना कर मुठ्ठी बाँध दी जाती थी! लड़कियाँ बंचपन से ही मेहन्दी से शर्त लगा बैठती हैं...तुम्हे लाल होना है मेरी हथेली पर..क्योंकि मेरा खाविंद मुझे बेहद
 चाहेगा! एक दुल्हन के शर्माए वजूद से जब उबटन,  मेहन्दी ,इत्र ओर मोगरे की मिली जुली खुश्बू आती तो पास बैठी , ज़बरदस्ती को आँसू बहाती सखियों , का ईमान भी डगमगा जाता था!

एक और खवाब भी था..डोली/ पालकी मे बैठने और खुद को क़ीमती समझने का.... मगर ग़रीब घरो मे डोली नही  रिक्शा मँगवाया जाता था...जिस पर चादर बाँध देते थे ताक़ि दुल्हन का  उजला  रूप दूल्हा से पहले कोई ना देखे. रिक्शा में बैठने से पहले और बैठने के बाद भी ,कितनी बार दुल्हन रो कर बेहोश होती थी! बिदाई के आँसू होते थे , वो समझती थी घर से बिदाई के..मगर असल में वो उसके खुद से जुदा होने के आँसू होते थे , अल्हाड़पन से रुखसती के, मासूमियत, बेफिक्री, चाँद , हवा, बारिश से रुखसती के...!
फिर घूँघट खोल के  नथिया उठा के पानी पीना भी दुल्हन को नाज़ ओ अदा  से भर देता था..छोटी और मासूम खुशियाँ..जो बाद मे बड़ी बड़ी बातों पर बात बेबात क़ुरबान होंगी, उसके तसवउर मे नही था...!
ख्वाब तो बेहद सारे थे....मगर बस शादी तक...फिर तो हक़ीक़त होनी थी..कड़वी हक़ीक़त!
अपनी ही परछाई से इश्क़ कर बैठने वाली लड़की बड़ी सहजता और सादगी से उसी परछाई के ख़ाके में अपने शरीक़  ए सफ़र का सरापा मुँह तक भर लेती , और जब सब छलकने लगता तो कहती ,औरत का नसीब यही होता है...हाँ अब वो औरत है... एक रात में  , एक सदी, एक उम्र, एक उफक़, और एक दौर, एक शनाख्त, एक नाम और ख़ुशियों  के दाम सब बदल जाते हैं.... अब वो खुद से नही किसी और से मुहब्बत करती है...और फिर मुहब्बत ख़त्म!






  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...