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Monday, May 18, 2020

~~अम्मा अब चल ना पाऊँगा ~~

                       


  ~~अम्मा अब चल ना   पाऊँगा ~~

यहाँ हद नही है रास्तों की,है बिना उफक़ के आसमान
बेहद है सब कुछ यहाँ , फिर भी क़फस मे सारा जहाँ

दहलीज़ है क़फस कहीं तो, कही क़फस है रास्ता
कोई रिहाई माँगे सफ़र से, कोई भूख से है माँगता

पहले पाँव, फिर थे छाले, फिर घुटनो की बारी आई
जब घुटने भी फूट गाए  ,कोहनी ने तब पुकार लगाई

पी कर सारा लहू जिस्म का सड़क फिर भी ना सैराब हुई
रोटी की परछाई दिखाई और  सहरा से सराब हुई

कहीं उखड़ गई साँस सीने मे, जब  धड़कन से निकली जान
अम्मा अब ना चल पाऊँगा, कह का मासूम हुआ बेजान

गोदी मे ढुलकी गर्दन पे अम्मा चीख के रोती है
कही दूर एक नर्म बिस्तर पे मम्मा लोरी पिरोती है

कही सब्ज़ी लगे हाथ चाट्ती सड़क की भूक ना  मिटती है
कही रोटी पकड़े हाथो की लकीर ट्रेन से कटती है

शहर की सरहद पे एक बेवा, और घर पे बेदम शौहर है
घर पे रोते चीखते बच्चे, और क़िस्मत मांगती जौहर है

बाप के कांधे पे देखो बेजान हो गया एक मासूम
बेबस क़दम, लाचार सफ़र मे, दम निकला जाने किस जून

पथराए हवासों को जब साथी मुसाफिर होश मे लाए
तड़प तड़प के बाप पुकारे, बच्चा कैसे होश मे आए

बेदम तो सारी क़ैयनत है, होश मे कौन सा राही है
पिघला सीसा रवाँ रगों मे, मुँह पे ग़ुरबत की स्याही है

ट्रक के शिकम मे ग़ुरबत थी बैठी, जैसे आँतो मे भूक हो चिपकी
एक कराहे दूजा रोए, रब जाने कब मौत हो किसकी

अधमरे जिस्म को मरा मान के गाड़ी से सड़क पर दिया उतार
ज़िंदा बच्चे, साथ चल पड़े  हर जानिब थी मौत क़ी कगार


प्यासे होंठ, सूखा जिस्म, हड्डी चमड़े मे लिपटा इंसान
कहे है हमसे  ज़मीर मे झाँको, क्या मर गया सब का ईमान!

Dr Shaista Irshad




Friday, May 8, 2020

A mother in quarantine

~~क्वारन्टाइन में एक माँ~~

कौन सी नज़र, नज़र ए आख़िर थी

ये उस चौखट के सीने मे धसी 

आखरी ख्वाइश सी बेताब नज़र 

की गवाही मे पिन्हां  है ,

वो नज़र जो लख़्त ए जिगर को

फक़त एक बार कलेजे से लगाने की 

बेताबी में अपने होठ 

काट बैठी थी 

लहू फूट पड़ा था सिसकियों से 

उस 2 साला नन्हीं जान की 

पुकार मे मुन्तक़िल  आँखो की उम्मीद पर ,

धड़कनो के बीच महज़ एक पारदर्शी चौखट 

और एक दस्तक का फासला अज़ल तक फैला हुआ ,

करोना मे क्वारन्टाइन एक माँ

जिस के बोसे दरवाज़े की झीरी में दर्ज है 

ममता के बोसे होंठो के निशानात मे साँस लेते है 

काँच की चौखट से अपना धड़कता दिल मंसूब कर

वो सरापा दहलीज़ में तब्दील हो जाना चाहती थी 

हवा बन जाना चाहती थी 

जिस्म उतार देना चाहती थी 

काँच की जिल्द पर दम तोड़ती दस्तक 

को रग़ ए जान मे उतार लेना चाहती थी 

वो चाहती थी उन फूल से गालो और आँसुओं क दरमियाँ 

सुर्खी से भीगे होंठो से तमाम याद चुन ले 

याद अपने माँ होने की, और भुला दे 

उस मासूम के ज़हन से ममता का लम्स 

मगर कुछ भी ना हुआ सिवा इसके 

की वो माँ जिस्म उतार बैठी 

और दरवाज़े से रिस गई...

मगर अब इस पर चीखें दर्ज हैं 

किसी मासूम के नन्हे जिगर को चाक करती 

दरवाज़े पर पुकार की तरह दम तोड़ती हुई 

मगर चीखे दर्ज है,!

Dr Shaista Irshad


अज़ल: eternity
मुन्तक़िल: tranferred
पिन्हां: embedded



  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...