Showing posts with label nazm. Show all posts
Showing posts with label nazm. Show all posts

Saturday, May 30, 2020

अगर वो देख लेता ...

~~अगर वो देख लेता ...~~


वो दम बखुद मोबाइल और  वाइ फ़ाई के सिग्नल्स जिस शिद्दत से देखता है,
काश उसने यूँ ठहर कर मेरे खामोश लबों की जानिब देखा होता ...
तो पत्थर का बुत भी खुदा से ज़बान माँग बैठता की उसकी नज़र मायूस ना लौटे...
उसकी बेताब नज़र क्या कर सकती थी उसको अंदाज़ा ना था....
अगर वो ठहर के देख लेता तो ...
पोर पोर से शर्म ओ हया के उन्स मे लिपटा पसीना यूँ छलक पड़ता मानो उसने पलकों से भंवर उकेर दिए हो बदन की जिल्द पर....
उसकी नज़रो के लम्स के मुंतज़ीर के मारे लब मेरे ..थरथरा उठते ,गदरा जाते ...इक़रार ए उल्फ़त के शौक़ मे....
बाज़ू नदी हो जाते , जिस्म को छुपा लेते ...

अगर वो देख लेता ...

सिर सजदा मे होता,
आह दुआ बन सांसो से रिहा हो जाती....
और  घुरूर आँसुओं सा तुम्हारे क़दमो तले यूँ जमा होता जैसे आँखे बरस के पानी हो चुकी हो और  सींच रही हो तुम्हारी तवील उम्र की ख्वाइश को  ....

काश तुमने यूँ ही ठहर के देखा होता ....
तुम्हारी इन ठहरी हुई पलकों पे मेरी दुआओं के बोसे होते ,
पलकों के भारीपन को बेशुमार चूम लेते , आगोश ए ज़ुल्फ में सुकून से समेट लेते ..
यूँ भुला देते हर रंज ओ आह को  जैसे दुखो के मरासिम पे रजनीगंधा गूँथ देते... की हर साँस तेरे शाने पे तहरीर कहती ...रुबाई लिखती ...अपनी बेचैन तमन्नाओ की....
काश तुम ठहर के देख लेते कभी यूँ ही जैसे मैने चाहा था...
मैं उन नज़रो मे प्यास तलाश लेती...अपने बेताब दीदार की प्यास...
उन नज़रो मे दो होंठ उगा लेती ... लफ्ज़ नक्श कर लेती..खुद को मुखातिब करते लफ्ज़...
मगर काश ..काश ही रहा ....
तुमने देखा नही ...ओर मैं तरसती ही रही...
तड़पती ही रही....!!

Dr Shaista Irshad







Tuesday, May 26, 2020

उसके सांस लेते पाँव


~~ उसके सांस लेते पाँव

एक लड़ी की घुंघरू की  पायल उसके गन्दुमि(गेहूँ रंग की ) पाँव से यूँ झूल रही थी जैसे
गेहूँ की बाली के पोरों से सिहर के टूटते बारिश के मोती...
उसका एक पैर कासनी रंग की साड़ी से मनमानी कर बाहर निकल आया था,
जैसे पाँव की उंगलियों साँस लेना चाहती हों
जैसे मकई  की बाली के दाने कमसिनी के ज़ोर से फूट पड़े,
जैसे रोशनी चराग़ की लौ से एक घुँगराली सी  चिंगारी चुरा कर दूर छिटक जाए!

वोह क़द्र ए हसरत से पाँव देखता रहा, फिर पायल और फिर उसकी उंगलियों मे ही कहीं खो गया!
शायद वो गहरी गुलाबी नैल्पोलिश जो मध्धम होने पर भी उंगलियों पर दहक रही थी , निगाहों से चखता गया,

मासूमियत का ज़ायका, कमसिनी के किवाम में,
वो गहरी साँस भर के सिर झुका गया, आँखो मे सजदे थे, दुआ थी,
और हसरतों का तवाफ़ था,

अनमनी सी ख्वाइश हुई मेहन्दी लगे सुर्ख पाँव का ज़ायका क्या होगा ?
उतने ही सजदे होंगे या नियत टूट जाएगी,??
मुहब्बत मे पाकीज़गी का क़ायल वो,
अपने सिर पे तलवार और आँखो मे क़यामत लिए ,
नज़र से सींच रहा था अपनी एक तरफ़ा मुहब्बत को!

उसने नींद मे ही पहलू बदला था शायद , और बिजली सी क़ौन्द गई थी,
नज़र हिचकिचा के बेसाखता पिन्ड्लियो पर पहुँची ... ठहर गई
जैसे गर्दिश ए लम्हत, माह ओ साल रुक जाए, क़यामत चौखट पे खड़ी हो और आगे बढ़ने को इजाज़त माँगे...

साफ शफ्फाफ पिन्ड्लिया, जैसे चाँद तराश रहा हो कोई संगतराश ,
और चाँदनी उसके लबों पे थी..
हर घूँट आब ए हयात थी...
तसव्वुर ए इश्क़ मे आब ए हयात...

अचानक जैसे किसी ने उसे पुकार लिया और पाँव के घुंघरू बज उठे ...

और यूँ लगा उसने दिल पे पाँव रखा हो...
उस गायबाना लम्स को पी गया वो अपने जिल्द के पोरो से ...
जैसे बरसो से खामोश खंडहर मे कोई शोर पी जाए

शोर पी के कोई सन्नाटा कब सैराब हुआ है?
 मुस्कुराहट के कुम्कुमे, ओर महबूब की सरगोशियों मे साँस लेने की आरज़ू ..
ये ही चन्द ख्वाइशें जिसे वो जमा करता तो "घर" बना लेता!
कोई ऐसा भी होता है क्या ?
जो किसी अनदेखे के पाँव मे सिर झुक लेता है?
उसके अपने घर की एक दीवार की झीरी  से बस यही जन्नत देखी थी .....
ओर उसी झीरी के नाफ़ ए प्याले से उसके पाँव की लज़्ज़त लेता रहा....आब ए हयात पीता रहा...
पैत्याने  मे सिरहाने सा सुकून उसने ही तलाशा था... ..!

डॉ शाइस्ता इरशाद





Thursday, May 14, 2020

बेनाम मरासिम

बेनाम मरासिम

वो मसनूई एक आवाज़ है
जो तमाम तहों में सिमट के भी
करे है मदावा मेरे हाल का
जैसे छुपा हुआ कोई चIरागर

मैं आँसुओं में अदा हुई 
कभी टीस बन कभी आह बन
कभी साँस थी कभी शोर था
नहीं खुद पर कोई ज़ोर था

काँपते लबों में जब
सिलवटों का क़याम था
मैं चुप रहूं या कुछ कहूँ
लहजा मेरा आम था
वो सिलवटों पे रख के लफ्ज़
उंगलियों मे पिरो के यूँ
मुझे हर्फ ब हर्फ और लफ्ज़ ब लफ्ज़ 
लिखा करे है ठहर के यूँ
जैसे उम्मीद जबीन ए चाँद पर

दरीचा है, दरवाज़ा भी, 
आह भी और गवाह भी
कभी सरIपा दर्द ए क़याम है
जो ठहर के भी है रवाँ रवाँ 
जैसे मसीहाई का पयाम है
ये कौन सा मक़ाम है
जब बिना उम्मीद ओ मरासिम के भी
तकिये पे फूल रख जाए है
दर्द में यूँ आए है ...

मुझे वाक़िफ़ करे है मुझसे यूँ
जैसे शनासाई एक उम्र की
मुझे मिला के मेरी शिनाख्त से 
मुझे मेरे पास सहेज कर
लौटा रहा है मुझको वो 
मेरे लफ्ज़ मुझको भेज कर
मैं कागज़ी मैं आरज़ी
 रिहा करके क़लम की नोक से
मैं हो गई हूँ मुस्तकिल..
हाँ तभी से हूँ मैं मुस्तकिल...

Masnooi: jani pahchani
marasim: rishta
jabeen :matha
madaava: ilaaj
Dr Shaista Irshad
shanasai: pahchan
aarzi: temporary
mustakil: permanent 

  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...