Thursday, March 19, 2015




~~माँ अब भी तेरी याद आती है~~
मेरे गाँव में
नीम की छाँव में
रिम-झिम हसंते सावन में
सोन्धे महके आँगन में
बचपन मेरा पलता गया
कच्ची मिट्टी ख़ुद पर मलता गया
वह छाँव आज भी ज़िंदा है
जैसे शाख़ से लिपटा परिंदा है
धूप के क़तरे छाँव को पीते हैं
मेरे आँसू बचपन को जीते हैं
उस छाँव से आह अब दूर हूँ मैं
सब कहते हैं मग़रूर हूँ मैं
अब भीगे तकिये पे छाँव उतरती है
धूप सी यादें आंहें भरती हैं
माँ तेरी आग़ोश नहीं है अब
अक्सर कटती नहीं है शब
एक पेड़ लगाया आँगन में
पर बरसात नहीं है सावन में
गुनगुन सी धूप झुलसाती है
माँ अब भी तेरी याद आती है





दम ए फ़िराक़ इस बेजान वजूद में
बस इन निगाहों में जान बाक़ी है
खु़द की शिनाख़्त से बेपरवाह
रोएं रोएं में तेरी पहचान बाक़ी है
बाक़ी नहीं मुझमें कुछ भी अब
तेरी उल्फ़त के सिवा
शनासाई मिलेे तेरे नाम की
एक तेरे इक़रार का उनवान बाक़ी है...
Dam e firaq: moment of separation
Shinakht: pahchan
Unwaan: heading, title

Tuesday, March 17, 2015




निचोड़ लाऊं मैं रात की नीम मदहोश पलकों से अपने हिस्से की नीदं
और वह यूँ ही मेरे बिस्तर की सिलवटों को तन्हा सिसकता देॆखे......
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Tumhari sahmi hui palkein
Or
Baadlo ka hujoom
Wallah
Kis Kis ko barasta dekhun....

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हर्फ़ों के घूँट पिला दे साक़ी
मेरी आँखों के सफ़्हे कोरे हैं....
तेरी आवाज़ में लिपटे साग़र कई
मेरी तिश्ननगी के सावन अधूरेे हैं....
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अफ़्सुर्दा मेरे बाज़ुओं पर
काँपती तेरी उंगलियों का
लम्स दहक उठता है
जब बारिशें भिगोती हैं
बूँदो को चुभोती हैं....
याद धुलती नही तेरी
शब छन के पलकों पर
रात भर मचलती है
सुबह से जलती है....
अफ़्सुर्दा मेरे बाज़ुओं पर

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तन्हाईयोँ की तह में तेरी यादें मसल गईं
तू आ के मेरी सोच की सिलवटें उधेड़ दे...... 


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मिशग़ान पर आंसुओं का बोझ इतना है...
रूह पर पैरहन ए बदन थक गया हो जैसे.... 

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तेरे नाम से शानासाई को अपनी आदत लिख बैठा हूँ
तेरी यादों में उठती सदाओं को इबादत लिख बैठा हूँ
रात की गहरी छाया कैसे छम से सहर हो जाती है
तेरी पलकों के झुक कर उठने को क़यामत लिख बैठा हूँ 


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तेरी भीगी आवाज़ की लरजि़शों में
कापंते होठोँ में दबी ख़्वाइशों में
मेरा इश्क़ आवाज़ देता है तुझे
दड़कनों से उठती सरगोशियों में... 

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उम्र के कान्धे पे यूँ ढोती रही ख़्वाइशें तमाम
तेरे क़दमों में गर मनजि़ल मिले सारी ख़वाहिश तमाम हो जाएं...

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उम्र के ग़ुज़रते क़ाफ़िलों में
एक बचपन मेरा ठहर गया
दिन महीने और साल तो बीते
बचपन में पहरों पहर गया
उधेड़ के परतें समझदारी की
ना समझी क्या पाया है
माँ की गोद बाप का आँगन
वो बेफिक्री का दहर गया... 


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दाँतों तले ख़याल तेरा
ज़बान के साथ कुचल गया था
मैं रूक कर उठती टीस के इन्तज़ार में
ख़ामोशियाँ निगलती रही
हाँ
यादों की ख़ुराक पर ज़िदा रहना
शायद
ऐसा ही होता है.....


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तुझसे बिझड़ कर मुझमें कहीं
तन्हा सा अधूरापन रहता है
शाह- ए- रग में रवां दवां है
अश्कों सा आखों से बहता है..
सांसों में तेरी घुल जाऊँ तो
रूह में तेरी रुल जाऊँ तो
इश्क़ यह अपना मुकम्मल हो
जज़्बों का कारवाँ कहता है....


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Tishnagi Tishna lab ki mere sairaab nahi hoti
Iqraar tera chhuey to ...aab- e -hayaat ho jau...

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Sadiyaan guzaar kar main ...
 Lamhe ki qaid me hoon....    

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सिसकियां टूट कर बिखर गईं इक तरफ़ा चाहत की
और झुर्रियाँ सवारंते हुए बूढ़ी हुई उलफ़त मेरी..... 


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मेरे सीने पर तेरी धड़कनों का मचलता हुआ वह रक्स
मैं आज भी जी उठता हूँ तेरी सांसों के तसव्वुर से.....


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मैं तुम्हारी सांसों से रिहा हुई इक दड़कन कि तरह हूँ
ना अधूरी हूँ.... ना मुकम्मल होती हूँ.................. 


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सांसों से पी कर नज़दीकियां तेरी
मैं खुशबुओं से लबरेज़ एक जहान हो गईं हूँ 


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तुझे रूबरू देख कशमकश में हूँ जान मेरी
एहतराम में धड़कनें दिल की ठहर ना जाएं कहीं... 


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Monday, March 16, 2015





Zakhm- e -Tamanna se labrez, aey "jaan" meri jaan bahot hai....
Uff Chubhte hain aansu, laala -e -sahraa ka mudaava De De....
Labrez: overflowing
laalaa-e-sahraa=desert flower]
zaKhm-e-tamannaa=wound caused by desire; mudaavaa=cure] 

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Tu bahon se azad hui, ek arsa hua, magar...
mai aj bhi qayamat ko pahlu me liye hoon...
Apni saanso ka hijab tere mere darmiyan rahne de...
Tujhe behijab karne ko Rab se chand saanse udhar maangi hain....

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वो एक ख्वाब हसरातों के यतीम-खाने में
गवाँ दिया उसे हमने ही आज़माने में
नदी कशमकश मे रही समंदर की हमनवाई को
आह समंदर सूख गया फ़ासले मिटाने में..
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यूँ बर्ग-ए-गुल उभरे है तह में सांसो के मेरी..
तेरी सांसो ने मेरे गेसुओं मे जब क़याम किया...
जैसे फिसली हो पहलू से हज़ार कलियाँ हमदम... 
चूम कर निगाहों से तूने जब सलाम किया....
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अपने उदास बाज़ू मेरी यादों से भरे रखना
रात की स्याही को सहर से परे रखना
पी लूँगा दर्द सारे तेरे फूल से गालो से
मुहब्बत मे मिले सारे यह ज़ख़्म हरे रखना
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Safar is bojhal raat ka un aanhon k darmiyan
Khyal tere sath ka bahoan k darmiyan
Ji rahi hai dhadkan meri teri dhadkano se ulajh k
Guftgu hamare labo ki uff saanso ke darmiyan...
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Tera mere hatho ko tham lena yun be-irada ...
Ufff meri rooh per teri muhabbat ka pahla bosa hai... 


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Apni saanso se tere hotho pe Ghazal likhi hai
Ek muskurahat se in ghazlo ko awaaz De De....
Yeh bejaan lafz qaid hai husn e khamoshi me
Chhu ke in lafzo ko khayalo ko parwaaz De De....
Parwaaz: flight
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  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...