Saturday, February 22, 2014





उसकी खामोशी और उसकी आवाज़

उसकी खामोशी
ना चेहरा है, ना बदन है
गूँजती है ज़हन मे
मेरे लब-ओ-दहन में
ना लहजा है, ना आवाज़ है
मेरी धड़कनो के तलातूं पर 
मचलता हुआ एक साज़ है
घुलती है जो पानियों मे
फूलों के छू जाने से
वो अक्स है 
खामोशी तेरी...
झिलमिल करती लहरों पर
किरणों की मिलने से उभरे
वो रक्स है 
खामोशी तेरी...

उसकी आवाज़
बारीशों में फिसलती बूँद की
मलमल सी सरगोशी है,
ख्वाबो में डूबती उतरती
जैसे होश मे एक मदहोशी है
हवा से सिहर्ती मासूम अंगड़ाई है
जैसे पहन घुंघरुओं को
घटा उमड़ आई है
गुनगुनी धूप में
डालियों का लचकना जैसे
आवाज़ तेरी...
सीप की आगोश मे 
मोतियों का थिरकना जैसे 
आवाज़ तेरी...

कशमकश में हूँ अब ऐ मेरे हमराज़
ज़्यादा ख्वाबनाक तेरी खामोशी है, या तेरी आवाज़...?
या तेरी आवाज़?




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