Thursday, April 10, 2014



तेरी नसों मे गुमनाम सी बहती हूँ
तेरी धड़कन में चुपचाप सी रहती हूँ
पूछ गालों पर ठहरे उन सूखे आँसुओ से
किस तरह तेरी आखों से रोज़ ढहती हूँ



तेरी यादों की आवाज़ के सहारे
मैं खामोशियों को पढ़ने का हुनर सीख गई हूँ



अपनी आँखो के जाविए को मेरे आँखो के सिम्त मोड़ कर
तू कह दे की तुझसे बिछड़ के भी तुझमे ज़िंदा रहा हूँ मैं

अब क्या?

क़िस्मत आज़मा ली....
अब क्या?
मुहब्बत भी पा ली
अब क्या?
सरशार हूँ
गुलज़ार हूँ
नही कोई भी मशगला है अब
बेकैफ़ सिलसिला है अब
खुद से बेज़ार हूँ
हर लम्हा बेक़रार हूँ
बेज़ारी छुपा ली
अब क्या?
नए ख्वाब
नई हसरते
नहीं बदलती इंसान की फ़ितरातें
फ़ितराते सुला ली
अब क्या?
ख्वाबों की अनगिनत लडियाँ
तIबीर में ढाल लीं
अब क्या?

ऐ दो जहाँ के मालिक अपनी रहमतें मुझपे वार दे
उड़ जाए धूल रूह की ऐसा कोई गर्द-ओ-गुबार दे
मंज़िल पर पहुँच के भी जाने क्यों प्यासी रही हूँ मैं
बुझ जाए तिश्नगि रूह की वो क़रार मुझमे उतार दे


Thursday, April 3, 2014



~~ढूँढती हूँ~~ Ek Ghazal

रोज़मर्रा के कामों मे अपनी पहचान ढ़ूँढती हूँ
जो खुद से मिला मुझको वो समान ढूँढती हूँ
देखे चाँद मुझको एक ज़माना गुज़र गया है
दिख जाए गर चाँद तो अपनी "जान" ढूँढती हूँ
समझे जो मेरी चुप को तौले ना मेरे लफ्ज़ को
खामोशियों का एक ऐसा क़दरदान ढूँढती हूँ
शजर जिसके खुश्बू, रहगुज़ार में जिसके खुश्बू
खुश्बुओ से मोअत्तर एक गुलिस्ताँ ढूँढती हूँ
खामोशियों से ला दे इंक़लाब सबके दिल में
लफ़ज़ो को करदे निहत्था वो बेज़बान ढूँढती हूँ
वार दे अपना सब कुछ वाल्दैन के लिए जो
औलाद की ज़िंदगी की ऐसी दास्तान ढूँढती हूँ



#shaista








यह पलकें...यह नींद का बोझ और तेरी खुश्बू की पनाह
क़तरा क़तरा उतर रहा है सुकून मुझमे ख्वाब की तरह... 


आँसुओ की सूरत ,तेरे सीने मे जज़्ब है मेरी अनकही मुहब्बत की निशानियाँ..
एक बार लगाया था गले से तूने मेरी आँखो को रोता देखकर....




वो आतिश ,वो आँच है ऐ साहिर लहजे मे तेरे....
मेरे जज़बों पर जमी खामोशी की बर्फ बेइख्त्यार पिघलती जाती है...


Tuesday, March 18, 2014



मुझे जुनून की हद के पार ले जाने को
तेरी मुहब्बत का आगाज़ ही काफ़ी है.
जो थपक दे मेरे रोते बिलखते  दर्द को
ऐसे सुकून को तेरा सीना गुदाज़ काफ़ी है
करने को मुझे हर पल खुद से गाफिल
तेरी सांसो का मद्धम साज़ काफ़ी है
जान! मेरा ज़ब्त-ओ-गुरूर आज़माने को
तेरा नींद में डूबा हुआ अंदाज़ काफ़ी है
कौन काफ़िर चाहता है एक उम्र का जीना
तेरे साथ का एक लम्हा उम्र दराज़ काफ़ी है
किसी और की आँखों में सुर्कुरू क्यों होना
वास्ते मेरे तेरी एक निगाह हमनवाज़ काफ़ी है







ज़िंदगी में लिपटी धूप ना दे
अपने बदन की परछाई दे दे
पहचान सके चेहरे पर चेहरा
आँखो को वो आशनाई दे दे
क्या होगी दुनिया की रौनक
दिल को थोड़ी रोश्नाई दे दे
करदे मेरी चाहत का फ़ैसला
फिर कशमकश से रिहाई दे दे
तेरे बाद कुछ और ना देखूं
आँखो को ऐसी बिनाई दे दे


जी ले उस रोशनी में जो हिजाब से छन के आती है

यह वो कशिश है जो हया पहन के आती है............. shaista

Saturday, March 15, 2014





उफ्फ यह तुम और यह नींद

थपकीयों में भर भर नींद
उंड़ेल दी पलकों पर सारी
पलकें भीगी ख़याल भीगे
भीगी मेरी तकिया सारी
सो जाऊं तो वो खोती है
ना सोउँ तो नींदें रोती हैं
समेट कर आँखो में खुमारी
हाय यह इश्क़ बड़ी बीमारी
उसे ज़ेरे लब पुकारा
कैसे सोउँ मैं बेचारा
छुपा ले अपनी आगोश में  मुझको
ठहर जाए यह बादल आवारा
टिक जाओगी गर तुम तो ही यह मेरी नींद टिकेगी
सुकून से मेरा इश्क़ रहेगा सुकून से यह उम्र कटेगी


उफ्फ यह तुम और यह नींद




जिसमे तू ना हो मुझे ऐसे मुस्तक़्बिल की सच्चाई  ना दे
छीन ले क़ूवत  सुनने  की गर आवाज़ तेरी सुनाई ना दे
तेरी उम्मीद,तेरा इश्क़,तुझे पा लेने के आसरे पर ज़िंदा हूँ 
जहाँ देखूं तुझे देखूं, तेरे सिवा कुछ देखूँ ऐसी बीनाई ना दे


वो रोई काँधे से मेरे लग कर किसी और के लिये.......
और लोग समझते रहे दरमियाँ हमारे इश्क़ गज़ब है...





उसकी निगाहों में हुमकती अंगड़ाईयों के मौसम का ख़याल करने लगे
थक कर के जो सिमट आईं वजूद में उन नींदों से सवाल करने लगे
हया में उसकी उतरते देख क़ुदरत की मुस्कराहट के कई हज़ार रंग
हम अपना दिन,अपनी रात,अपनी तन्हाई, और बदन गुलाल करने लगे




  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...