मदावा
मदावा के मायने पूछे थे उसने
और फिर वो उर्दू की हर मौज को पुकार उठा
यूँ जैसे हर लफ्ज़ को यूँ छू के देखा हो
जैसे कोई नाबीना अपने हाथो से
किसी पत्थर पे तराशे मुजस्सम के नकूश पे
रूह फूँकने की जद्दो जहद से लबरेज़ हो कर
उसका हुस्न दोबाला कर दे...!
मायने नया पैरहन पहन लेते थे लब ओ लहजे को छू कर उसके
की मैं उस पैरहन मे पिरोए रंगो
की तासीर को मसीहाई कह बैठी....,
और फिर वो सिर्फ़ कहने के हुनर से दो चार...
खुद मे इंतिहा हस्सास "दो कान" भी रखता था ...
मैने लिखा था किसी नज़्म मे अपनी...
"दो कान की आरज़ू है मुझे..."
जब मैं बोलती वो कोरा काग़ज़ बन जाता ...
की मैं तौले जाने के ख़ौफ़ से लापरवाह...
जब अपना आप सामने रखती तो लगता
आज मुद्दतो बाद गहरी साँस ली हो...
जैसे इसके पहले जीने जितनी साँस मयस्सर थी...
खुद को अयान कर...
खुद मे उतर के देखा है...
बेहद हसीन इत्तेफ़ाक़ था ..
खुद से मुलाक़ात का..
रूबरू होने का...
ऑर फिर बेसखता ये कहने का ...
मदावा के मायने पूछे थे उसने ..!!
Dr Shaista Irshad
shukriya apka
ReplyDeleteसुंदर कविता 💐
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