Wednesday, March 11, 2015




मुट्ठी भर धूप
चुभ रही थी
मेरे वजूद से बिछड़ती
शाम के पाँव में,
तेरे पहलू में
जाना था
क्या होता है
धूप के सीने में
शाम का जलना,
देख जो अब तू नहीं
तो हर पहर चुभन
हर तपिश छाँव है...
मैं भुला बैठी हूँ
अपनी जिल्द पर
प्यास हर मौसम की....

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