कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप हो तो ज़हन के पास नमालूम सवाल नहीं होंगे , जवाबों की मशक्कत भी नही होगी , मगर एक कभी ख़त्म ना होने वाला सिलसिला होता है , जो बस सवालों की फेहरिस्त में उलझा अपने होने का मक़सद तलाशता रह जाता है, और ऐसा निगाह ए हद में दूर तक नहीं होता जो जवाब दे सके ।
Shaista Irshad
Thursday, November 23, 2023
एक "आम सी ज़िंदगी"
जब "वो "होती है,
तो महसूस नहीं होती ,
सब पर ध्यान होता है ,
"सिवा उसके!"
मौसम बदलते जाते हैं,
उलझनों में क़ैद
सांसे मद्धम चलती हैं,
फेफड़ों तक पांव पसारने की मशक्कत में,
योग और ध्यान तक आती हुई सांसे,
सब कुछ छू आती हैं,
"सिवा उसके! "
हाथों से हाथ छू जाए उनके
तो सिहरन भी
ना महसूस हो,
एक छुअन भी अनछुई हो जाती हैं,
सब कुछ छू कर भी
"सिवा उसके !"
नन्हें हाथों को बेसाख्ता गालों से लगा लेना
मासूम वजूद को सीने में भींच लेना
ये सब होते हुए भी
नमौजूद सा होता है
"सिवा उसके "!
वो जब नहीं होती, छुअन को तड़पता वजूद
मासूम की नन्ही बाहें को पुकारता
कितना याद करता है "उसको ",
एक "आम सी ज़िंदगी को" !
एक "आम सी ज़िंदगी"
कितनी कीमती होती है
मुझ से पूछो!
Saturday, May 30, 2020
अगर वो देख लेता ...
~~अगर वो देख लेता ...~~
वो दम बखुद मोबाइल और वाइ फ़ाई के सिग्नल्स जिस शिद्दत से देखता है,
काश उसने यूँ ठहर कर मेरे खामोश लबों की जानिब देखा होता ...
तो पत्थर का बुत भी खुदा से ज़बान माँग बैठता की उसकी नज़र मायूस ना लौटे...
उसकी बेताब नज़र क्या कर सकती थी उसको अंदाज़ा ना था....
अगर वो ठहर के देख लेता तो ...
पोर पोर से शर्म ओ हया के उन्स मे लिपटा पसीना यूँ छलक पड़ता मानो उसने पलकों से भंवर उकेर दिए हो बदन की जिल्द पर....
उसकी नज़रो के लम्स के मुंतज़ीर के मारे लब मेरे ..थरथरा उठते ,गदरा जाते ...इक़रार ए उल्फ़त के शौक़ मे....
बाज़ू नदी हो जाते , जिस्म को छुपा लेते ...
अगर वो देख लेता ...
सिर सजदा मे होता,
आह दुआ बन सांसो से रिहा हो जाती....
और घुरूर आँसुओं सा तुम्हारे क़दमो तले यूँ जमा होता जैसे आँखे बरस के पानी हो चुकी हो और सींच रही हो तुम्हारी तवील उम्र की ख्वाइश को ....
काश तुमने यूँ ही ठहर के देखा होता ....
तुम्हारी इन ठहरी हुई पलकों पे मेरी दुआओं के बोसे होते ,
पलकों के भारीपन को बेशुमार चूम लेते , आगोश ए ज़ुल्फ में सुकून से समेट लेते ..
यूँ भुला देते हर रंज ओ आह को जैसे दुखो के मरासिम पे रजनीगंधा गूँथ देते... की हर साँस तेरे शाने पे तहरीर कहती ...रुबाई लिखती ...अपनी बेचैन तमन्नाओ की....
काश तुम ठहर के देख लेते कभी यूँ ही जैसे मैने चाहा था...
मैं उन नज़रो मे प्यास तलाश लेती...अपने बेताब दीदार की प्यास...
उन नज़रो मे दो होंठ उगा लेती ... लफ्ज़ नक्श कर लेती..खुद को मुखातिब करते लफ्ज़...
मगर काश ..काश ही रहा ....
तुमने देखा नही ...ओर मैं तरसती ही रही...
तड़पती ही रही....!!
वो दम बखुद मोबाइल और वाइ फ़ाई के सिग्नल्स जिस शिद्दत से देखता है,
काश उसने यूँ ठहर कर मेरे खामोश लबों की जानिब देखा होता ...
तो पत्थर का बुत भी खुदा से ज़बान माँग बैठता की उसकी नज़र मायूस ना लौटे...
उसकी बेताब नज़र क्या कर सकती थी उसको अंदाज़ा ना था....
अगर वो ठहर के देख लेता तो ...
पोर पोर से शर्म ओ हया के उन्स मे लिपटा पसीना यूँ छलक पड़ता मानो उसने पलकों से भंवर उकेर दिए हो बदन की जिल्द पर....
उसकी नज़रो के लम्स के मुंतज़ीर के मारे लब मेरे ..थरथरा उठते ,गदरा जाते ...इक़रार ए उल्फ़त के शौक़ मे....
बाज़ू नदी हो जाते , जिस्म को छुपा लेते ...
अगर वो देख लेता ...
सिर सजदा मे होता,
आह दुआ बन सांसो से रिहा हो जाती....
और घुरूर आँसुओं सा तुम्हारे क़दमो तले यूँ जमा होता जैसे आँखे बरस के पानी हो चुकी हो और सींच रही हो तुम्हारी तवील उम्र की ख्वाइश को ....
काश तुमने यूँ ही ठहर के देखा होता ....
तुम्हारी इन ठहरी हुई पलकों पे मेरी दुआओं के बोसे होते ,
पलकों के भारीपन को बेशुमार चूम लेते , आगोश ए ज़ुल्फ में सुकून से समेट लेते ..
यूँ भुला देते हर रंज ओ आह को जैसे दुखो के मरासिम पे रजनीगंधा गूँथ देते... की हर साँस तेरे शाने पे तहरीर कहती ...रुबाई लिखती ...अपनी बेचैन तमन्नाओ की....
काश तुम ठहर के देख लेते कभी यूँ ही जैसे मैने चाहा था...
मैं उन नज़रो मे प्यास तलाश लेती...अपने बेताब दीदार की प्यास...
उन नज़रो मे दो होंठ उगा लेती ... लफ्ज़ नक्श कर लेती..खुद को मुखातिब करते लफ्ज़...
मगर काश ..काश ही रहा ....
तुमने देखा नही ...ओर मैं तरसती ही रही...
तड़पती ही रही....!!
Tuesday, May 26, 2020
four liners
ख़ारिज ए दर्द ये उल्फ़त अगर हो जाए तो
दर्द में फिर दर्द की शिद्दत है क्या ये पूछिये!
ये पूछिये, हम तुममें खास क्या और आम क्या?
एक दूसरे में कौन कितना बाक़ी है ये पूछिये!!
उसके सांस लेते पाँव
~~ उसके सांस लेते पाँव
एक लड़ी की घुंघरू की पायल उसके गन्दुमि(गेहूँ रंग की ) पाँव से यूँ झूल रही थी जैसे
गेहूँ की बाली के पोरों से सिहर के टूटते बारिश के मोती...
उसका एक पैर कासनी रंग की साड़ी से मनमानी कर बाहर निकल आया था,
जैसे पाँव की उंगलियों साँस लेना चाहती हों
जैसे मकई की बाली के दाने कमसिनी के ज़ोर से फूट पड़े,
जैसे रोशनी चराग़ की लौ से एक घुँगराली सी चिंगारी चुरा कर दूर छिटक जाए!
वोह क़द्र ए हसरत से पाँव देखता रहा, फिर पायल और फिर उसकी उंगलियों मे ही कहीं खो गया!
शायद वो गहरी गुलाबी नैल्पोलिश जो मध्धम होने पर भी उंगलियों पर दहक रही थी , निगाहों से चखता गया,
मासूमियत का ज़ायका, कमसिनी के किवाम में,
वो गहरी साँस भर के सिर झुका गया, आँखो मे सजदे थे, दुआ थी,
और हसरतों का तवाफ़ था,
अनमनी सी ख्वाइश हुई मेहन्दी लगे सुर्ख पाँव का ज़ायका क्या होगा ?
उतने ही सजदे होंगे या नियत टूट जाएगी,??
मुहब्बत मे पाकीज़गी का क़ायल वो,
अपने सिर पे तलवार और आँखो मे क़यामत लिए ,
नज़र से सींच रहा था अपनी एक तरफ़ा मुहब्बत को!
उसने नींद मे ही पहलू बदला था शायद , और बिजली सी क़ौन्द गई थी,
नज़र हिचकिचा के बेसाखता पिन्ड्लियो पर पहुँची ... ठहर गई
जैसे गर्दिश ए लम्हत, माह ओ साल रुक जाए, क़यामत चौखट पे खड़ी हो और आगे बढ़ने को इजाज़त माँगे...
साफ शफ्फाफ पिन्ड्लिया, जैसे चाँद तराश रहा हो कोई संगतराश ,
और चाँदनी उसके लबों पे थी..
हर घूँट आब ए हयात थी...
तसव्वुर ए इश्क़ मे आब ए हयात...
अचानक जैसे किसी ने उसे पुकार लिया और पाँव के घुंघरू बज उठे ...
और यूँ लगा उसने दिल पे पाँव रखा हो...
उस गायबाना लम्स को पी गया वो अपने जिल्द के पोरो से ...
जैसे बरसो से खामोश खंडहर मे कोई शोर पी जाए
शोर पी के कोई सन्नाटा कब सैराब हुआ है?
मुस्कुराहट के कुम्कुमे, ओर महबूब की सरगोशियों मे साँस लेने की आरज़ू ..
ये ही चन्द ख्वाइशें जिसे वो जमा करता तो "घर" बना लेता!
कोई ऐसा भी होता है क्या ?
जो किसी अनदेखे के पाँव मे सिर झुक लेता है?
उसके अपने घर की एक दीवार की झीरी से बस यही जन्नत देखी थी .....
ओर उसी झीरी के नाफ़ ए प्याले से उसके पाँव की लज़्ज़त लेता रहा....आब ए हयात पीता रहा...
पैत्याने मे सिरहाने सा सुकून उसने ही तलाशा था... ..!
डॉ शाइस्ता इरशाद
Sunday, May 24, 2020
~~ दो कान ~~Two ears ~~
~~ दो कान ~~
इस पूरी क़ायनात में है बस मुँह ही मुँह नज़र आते है , बोलते मुँह, चीखते मुँह, इलज़ाम देते, शिकायत करते, ज़िम्मेदार ठहराते , ज़ख्म लगाते, ..बस मुँह ! मुँह से मेरा मतलब ज़बान से है क्योंकि मैं कान के बारे में कहने जा रही हूँ! हर कोई यूँ मुँह तक भरा हुआ है की छलक जाना चाहता है , समझ में आना चाहता है, खुद "बिना सुने "! "काश तुम सुन लेते", "काश तुमने सुना होता", "सुनो ज़रा सुनो तो ! "
मगर यहाँ तो हर कोई अपनी बारी के इंतज़ार में मिला , कहने के इतंज़ार में, जवाब देने के इंतज़ार में , लफ्ज़ो से कूट कूट के भरा हुआ , जैसे चराग जल उठता है तो सोचता है अब अँधेरा कहीं नहीं , मगर हाय रे नादानी , अपने की क़दमों पर नज़र नहीं जाती, अगर चली जाती तो यूँ ही ठहर जाता जैसे मोर थिरकते हुए थम जाता है अपने पैरो की जानिब देख कर ! हाँ तो मुँह... की बात थी... लोग क्यों इस क़दर भरे हुए हैं? और भरे हुए हैं तो किस्से ? क्या है जो सारी उम्र कह कर भी निकल नहीं पाता ? क्यों बेचैनी दिखती है तमाम सिम्त ? ये सब तरफ तरफ घिरा हुआ तन्हा इंसान , मुहब्बतों को, तवज्जोह और दो कान को तरसा हुआ ? इस क़दर तनहा की कभी मुर्दे के पास बैठ कर भी चुप नहीं रह पाता , बोलता जाता है, ज़िन्दगी की बातें, रोज़मर्राह की बातें, कपडे , खाने ज़ेवर की बातें..! ये जज़्बातों के नक़ाब में बेहिस इंसान "मुँह ही मुँह" है " कान "नहीं !
ऐसे में कान की बातें करने वाला बेवक़ूफ़ कहलाएगा शायदद... !
ज़िन्दगी के वह दिन कमसिन तो न थे मगर ये ज़रूर थे की मुहब्बत चखने के मुन्तज़िर थे , किसी के ख्याल पे खिल उठना , तारीफ पर सिमट जाना .. क्या किसी को सिखाना पड़ता है? और वह आवाज़ की तरह उतरा था दिल ओ ज़हन पर, जी मैं मुँह की ही बात कर रही हूँ ! तो आवाज़ बन के पहले कान में शामिल , फिर ज़हन ओ जज़्बात में शामिल और फिर मुहब्बत बन गया , और मैं , मैं बन गई "दो कान ".. मुहब्बत के, ख्वाबों के , ख्वाइशों के, मीठी सी कसक और जुस्तजू के ," सरापा कान" ! क्यों ? क्योंकि वही शरीक़ ए सफर होने वाला था , मंगनी से शादी तक का सफर मैंने कान बन के अदा किया ! ऐसा नहीं था की उसकी सूरत से वाक़िफ़ न थी , एक दो बार देखा भी था , मगर शनासाई और शनाख्त तो आवाज़ से हुई थी न ! सारे ख्वाब आवाज़ ने दिखाए, शिकवे भी आवाज़ से, मनाया भी आवाज़ ने, और शर्म , और वह पहली सी धनक और शर्म ओ हया भी आवाज़ ने खिलाई गालों पर ! और भी बहोत सी चीज़ो के लिए कान बनी मैं उन दिनों; क्या कहूं की उन दिनों हर किसी को मुँह और ज़बान मिल गई थी ; जैसे चाँद , जैसे रजनीगंधा और आर्किड के फूल, जैसे रंग बोल पड़ते थे, और तो और लफ्ज़ भी बोल पड़ते थे ! हवा की ज़बान दूसरी थी, बारिश और फुहार की पुकार दूसरी , सर्दियों की चुभन और कोहरे की खुशबु की ज़बान दूसरी !
और जब एक दिन तमाम रस्म ओ रिवाज़ो में बंध कर वह शरीक़ ए सफर हुआ तो लगा वह आवाज़ इस चेहरे से तो मेल ही नहीं खाती , वह आवाज़ अलग है और यह चेहरा अलग , बस उन्ही दोनों को मिलाने में उम्र गुज़रती गई , मिले नहीं दोनों कभी भी , जो उल्फत आवाज़ से हुई उनसे न हो पाई , और फिर धीरे धीरे आवाज़ खो गई और वह पहली सी उल्फत भी.... दोनों खो गए , ! अपनी इस कैफियत से जब तक दो चार रही तो लगा किसी से तो कहूं की यूँ भी होता है कही? मगर जब सर उठाया तो लगा सब तरफ सिर्फ मुँह ही मुँह थे , कान एक भी नहीं , कोई दुनियादारी बताता, गृहस्थी की ज़िम्मेदारी , कोई कहता हकीकत को तस्लीम करो, ज़िन्दगी ख्वाब नहीं। .. हत्ता की यहाँ तक हुआ की जिसक लिए मैं कान बन गई थी वह भी मेरे लिए "दो कान "न बन पाया ! और फिर हुआ यूँ की मैं मुँह बन गई , यूँ जैसे हर वक़्त अपनी तकलीफ को कहने की कश्मकश से दो चार हूँ , छिछली हो गई, उथली हो गई, छलकने लगी... हर वक़्त लगता जैसे लफ्ज़ो से ज़बान उबल जाएगी , मगर यहाँ तो लफ्ज़ो का तबादला नहीं दो ज़हनो का ठहराव दरकार था , मगर ज़िंदगी थी की भागी चली जाती थी...! मुझे बेहद शिद्दत से मुँह से वापिस कान होने की तरफ लौटना था , मगर लौटने का कोई रास्ता नहीं मिलता था ; पहले मुँह और फिर चीख चिल्लाहट में तब्दील हुई ! तभी कुछ हुआ , दो मूवीज देखने का मौक़ा लगा , Her और Lunchbox . ज़िन्दगी को किसी और नज़रिये से देखने का मौक़ा मिला। Her मुझे यह समझा गई की मुहब्बत आवाज़ से , मुमकिन है, चेहरा तो हम खुद गढ़ लेते है, दो आँखों दो कान वाला ! फिर उस आवाज़ को इंसानी शनाख्त की भी ज़रूरत नहीं थी , वह AI होने क बाद भी मुहब्बत हो जाती है, मुहब्बत सिखा जाती है !
प्रोटागोनिस्ट की लाइफ में जब वह operating system समान्था आई तो उसकी ज़िन्दगी के मायने बदल गए और फिर जिस्मानी तस्कीन के लिए भी उसे किसी जिस्म की ज़रूरत नहीं थी , यूँ ही होता है जब कोई रूह की खुराक बन जाता है, चिराग से मुहब्बत उसके अँधेरे तले में बैठ कर करता है , शायद ये मुकम्मल प्लेटोनिक लव होता है! शायद दो कान ही होते हैं जो किसी को उसकी असल शख्सियत और शनाख्त से वाबस्ता करते है, जैसे की कोई ये कहे " मुझे खुद को समझने के लिए तुम्हारे कान की शिद्दत से ज़रूरत थी, की इंसान लफ्ज़ो में ढलने के बाद खुद को तीसरी जगह से देख पाता है "! ऐसी ही Lunchbox ये सुकून दे जाती है की कैसे उम्र की सरहद से परे कोई किसी के कानो के सहारे खुद में नई ताक़त , नए ख्वाबो को जगह देता है! उन खतों के ज़रिये दोनों पहले खुद को फिर एक दुसरे को तलाश लेते हैं !
बस यूँ ही से दो कान की तवक़्क़ो और उम्मीद रही सदा से जो बस आवाज़ के सहारे मरासिम बना ले, , जो सुने - जो कहा वह भी , जो नहीं कहा वह भी , जो कहना चाहा वह भी, जो कहते हुए रुक गए वह भी ! जो समझ ले मेरी घुटी चीखो को, और खोखले लफ्ज़ो को , जो जज न करे , जो अपनी लम्बी गुफ्तगू के आखिर में मेरे दिए जवाब में एक "जी "को भी उतना ही समझे जितना मेरी तवील बहस को भी ! जो यह समझ ले की कब मैंने तकलीफ नहीं कही, कब चुपके से रो ली, कब दुआ दे दी , कब खी खामोशी दे दी , सब अनकहे मरासिम में आवाज़ के सहारे....
जाने क्यों अब लगता है ऐसे भी लोग होते हैं.... जो आपको समझने के लिए खुद आपसे रूह ओ इश्क़ में बंधे हो ज़रूरी नहीं , वह बस एक दुआ से होते हैं, पाक़ और बेगराज , बिना शिकायत, बिना इलज़ाम, बिन उम्मीद बिन जजमेंट बस संवार देते हैं ! दो कान हो जाते हैं , दो कान बना देते हैं !
Subscribe to:
Posts (Atom)
कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...
-
Until death... Am weaving red colour on my curves.... The silhouettes of me, come alive in palpitating nerves To kiss his ga...
-
~~मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ~~ मैं खुश्बू का क़ाफ़िला हूँ जो सरापा फूल बन जाते तुम्हारी ज़ूलफें अगर छूते कानों के ज़रा ऊपर ...