Wednesday, May 6, 2020

~~गुफ्तगू~~

~~गुफ्तगू~~

कान को उसके सीने पर रख कर पहली बार मैने उसकी धड़कन नहीं सुननी चाही थी, बस कान टीका दिए, यूँ जैसे कोई लंबे सफ़र के बाद बादलो की जानिब देख कर बारिश की तमन्ना कर बैठे, या फूल हाथ मे लेके ये सोचे की कब तक इसमे लम्स ओ साँस बाक़ी रहेगी, या फिर किसी दरख़्त की छाँव में उसके हरेपन को खुद की साँस में यूँ उतरता महसूस करे जैसे जड़ें ज़मीन की आगोश को भेदती चली जाती हैं! मैने  उसकी धड़कन को खुद मे सोखने के बजाए चाहा था की उसकी ख्वाहिशें , और उसके वो लफ्ज़ जो मेरे अपने दिल को बदस्तूर अंदर से लहू लहू कर रहे थे , वो कानों के ज़रिए वापिस उसके अंदर उतर जाए, जैसे कोई दरिया के सफ़र का रुख़ समंदर से परे मोड़ दे, या सांसो से गुलों की खुश्बू सारी की सारी पी जाए... इस क़दर लफ्ज़ थे, इस क़दर प्यास थी, इस क़दर शोर था , इस क़दर वीरानी थी, बस सब कुछ बेइन्तेहा था, फिर भी मैं खाली खाली थी!
मैं खूब बोलती थी, फिर भी बातों को तरसती ... कोई देखता तो पूछता भला दरिया में रहकर ये तिशनगी  कैसी , और मैं बेलफ्ज़ ही बोलती, मुझे उसकी धड़कनो को सुनते हुए बोलना है, तब बोलना है जब वो सिर्फ़ मुझसे मुखातिब हो, जब उसकी खामोशी में भी मेरी मुहब्बत की लरज़िश हो,  उसकी आवाज़ सिर्फ़ मुझ तक पहुँचे, वहाँ पहुँचे जहा किसी की पुकार की रसाई ना हो...
बातें तो दो रूहों के दरमियाँ की गुफ्तगू है, वो दो दिलों को यूँ जोड़ती है जैसे मुस्कान को होंठो में पिरो कर आँखो में सजाया जाए! मैं चाहती थी मेरे लफ्ज़ जब उसके होंठो को छुएँ तो उसके ज़हन ओ दिल में बो जाएँ , और जुगनू की फसल मेरे शाने पे बिखरे, मेरा चेहरा रोशनी के हाले में हो, उसकी तवज्जो और उलफत का हाला!
मैने सिर्फ़ मुहब्बत पर बहस या गुफ्तगू की सवाली नही थी...मुझे लफ़्ज़ों से हामिला मायनेखेज़ तवज्जो की जूस्तजू थी, और वो दुनिया भर की बात करता मगर मुझसे बेज़ार रहकर, सारी बातें ज़हन का मरकज़ होती मगर वो ना होता जिसकी ख्वाहिश मे कानो की जूस्तजू में तर-बतर फसल बंजर हो चुकी थी...

लफ्ज़ , जब उम्मीद से खारिज हो तो कितना मायूस करते है, ये कोई मुझसे पूछे, ये एकतरफ़ा मुतालबा अपनी रूह ओ ज़हन से करते करते एक मुकम्मल गुफ्तगू का ख्वाब कितना थका देता है कोई मुझसे पूछे...!!



2 comments:

  1. koi mujse pooche ??lekin wo na sabal ho aur na jabab ka muntjir

    ReplyDelete
  2. वाक़ई ,,,गुफ़्तगू भी एक ख्वाहिश बन भर रह जाए तो रिश्तों की गहराई मापने की ज़रूरत नही रह जाती ।
    विचारनीय पहलू ,सुंदर रचना ।

    ReplyDelete

  कोई ख़ला जब माहौल में शोर के बीच बनी दरारों में बैठने लगती है , तो यूं लगता है, बेचैनी को शायद लम्हाती क़रार आने लगा है , शायद होंठ जब चुप...